बालक पिप्पलाद ने जब होश संभाला, तब औषधियों को अपने अभिभावक के रूप में देखा । वृक्ष फल देते थे, पक्षी दाने लाते थे और मृग हरी वस्तुएं । ओषधियां अपने राजा सोम से मांगकर अमृत की घूंटें पिप्पलाद को पिलाया करती थीं । यह दृश्य देखकर पिप्पलाद ने वृक्षों से पूछा – ‘देखा यह जाता है कि मनुष्य माता – पिता से मनुष्य तथा वनस्पतियों का पुत्र होकर भी मनुष्य कैसे हो गया ?’ इसके उत्तर में वनस्पतियों ने पिप्पलाद को उसके जन्म की कथा सुनाते हुए कहा – ‘महर्षि दधीचि तुम्हारे पिता और (गभस्तिनी) तुम्हारी माता हैं । इस तरह तुम मनुष्य के ही पुत्र हो । तुम्हारे माता – पिता हमें पुत्र की तरह मानते थे, अत: हम भी तुम्हें पुत्र ही मानती आ रही हैं । तुम्हारी मानें अपना पेट चीरकर तुम्हें पैदा किया था और हमें सौंपकर स्वयं सती हो गयी थीं । तुम्हारे माता – पिता के मर जाने के बाद समूचा वन बहुत दिनों तक रोता रहा । वे हमें प्यार करते थे और हम सब उन्हें ।’ इतना कहकर वनस्पतियां फूट – फूटकर रो पड़ीं । यह सुनकर बालक पिप्पलाद को बहुत विस्मय हुआ । उसने अपने माता – पिता की कहानी जाननी चाही । वनस्पतियों ने उनके माता पिता को श्रद्धा से नमन कर उनकी जीवन – गाथा प्रारंभ की – ‘तुम्हारे पिता का नाम दधीचि था । उनमें सभी उत्तम गुण विद्यमान थे । तुम्हारी माता उत्तम कुल की कन्या और पतिव्रता थीं । उनका नाम गभस्तिनी था । वे लोपमुद्रा की बहन थीं । तुम्हारे माता – पिता ने तपस्या कर इतनी सामर्थ्य अर्जन कर ली थी कि उनके आश्रम पर दैत्य – दानवों का आक्रमण नहीं हो पाता था । एक दिन विष्णु, इंद्र आदि सभी देवता आश्रम में आएं । दैत्यों पर विजय पाने से वे प्रसन्न थे । तुम्हारे माता – पिता ने उनका भावभीना सत्कार किया । देवताओं ने कहा – ‘आप जैसे महर्षि जब हन लोगों पर इतनी कृपा रखते हैं, तब हमारे लिए क्या दुर्लभ है ? हमने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है । अब चाहते हैं कि अपने अस्त्र – शस्त्र आपके आश्रम में रख दें, क्योंकि तीनों लोकों में आपका आश्रम ही निरापद स्थान है । यहां आपकी तपस्या के प्रभाव से दैत्य आदि प्रवेश नहीं कर पाते ।’ उदारचेता मुनि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । तुम्हारी माता ने उन्हें रोकते हुए कहा – ‘नाथ ! यह कार्य विरोध उत्पन्न करन् वाला है । इस काम में आप न पड़ें । आप तो समदर्शी हैं । आपके लिए शत्रु – मित्र बराबर हैं । अस्त्र – शस्त्र रखने से दैत्य और दानव आपसे शत्रुता रखने लगेंगे । धरोहर – रूप में किसी का धन रखना साधु पुरुषों के लिए उचित नहीं कहा गया है ।’ महर्षि दधीचि ने कहा – ‘देवता सृष्टि के रक्षक हैं और मैंने हां कर भी दिया है, इसलिए अब नहीं कहना अनुचित हैं ।’ देवता अस्त्र – शस्त्र आश्रम में रखकर चले गए । इधर दैत्य महर्षि से द्वेष करने लगे । महर्षि को चिंता हुई कि दैत्य बड़े बीर तो हैं ही, साथ ही तपस्वी भी हैं । जब वे आक्रमण करेंगे तब मैं शास्त्रों की रक्षा नहीं कर पाऊंगा, ऐसा विचारकर उन्होंने अस्त्र – शस्त्रों की रक्षा के लिए एक उपाय किया । उन्होंने पवित्र जल को अभिमंत्रित कर उससे अस्त्र – शस्त्रों को नहलाया और उस जल को स्वयं पी लिया । तेज निकल जाने से वे सभी अस्त्र – शस्त्र शक्तिहीन हो गए । इसलिए वे धीरे – धीरे नष्ट हो गए । बहुत दिनों के बाद देवता महि के आश्रम में पहुंचे, क्योंकि उनके शत्रुओं ने फिर सिर उठाया था । महर्षि ने उन्हें बतलाया कि उन अस्त्रों की सुरक्षा के लिए उनका तेज मैंने पी लिया है । वे अब मेरी हड्डियों में मिल गए हैं । आप हड्डियां ही ले जाएं । मेरे शरीर का यह सुंदर उपयोग हो रहा है । महर्षि ने योग के द्वारा शरीर का त्याग कर दिया । विश्वकर्मा ने उन हड्डियों से दिव्य अस्त्रों का निर्माण किया । वे ही देवताओं की विजय के कारण बने । इस अवसर पर माता गभस्तिनी नदी – तट पर गयी थीं । पार्वती की पूजा में लगे रहने से उन्हें लौटने में देर हो गयी थी । उस समय वे गर्भवती थीं । आश्रम में आने पर उन्होंने अपने पतिदेव को नहीं देखा । अग्निदेवता ने सारी घटना उन्हें सुना दी । उन्होंने पति के कार्य की सराहना की, फिर तीनों अग्नियों की पूजा करके अपना पेट चीरकर तुम्हें हाथ से निकाल दिया । तुम्हें हमलोगों को सौंपकर पति के केश आदि के साथ वे अग्नि में प्रवेश कर गयीं । उस समय आश्रम का प्रत्येक प्राणी दु:ख से संतप्त होकर रो उठा । सब कह रहे थे कि दधीचि और प्रातिथेयी (गभस्तिनी) जितना हमें प्यार देते थे, उतना अपने माता पिता भी प्यार नहीं कर पाते । हमें धिक्कार है कि हम उनके दर्शनों से वंचित हो गए । अब यह बालक ही हमलोगों के लिए दधीचि और प्रातिथेयी है । वनस्पतियों ने कथा का उपसंहार करते हुए कहा कि यहीं कारण है कि हम वनवासी तुम्हें पुत्र से अधिक मानते हैं । बालक पिप्पलाद को अपनी कथा सुनकर बहुत दु:ख हुआ । माता ने पेट चीरकर जो उसे निकाला था, इस बात से उसे अधिक पीड़ा हुई । वह रोता हुआ बोला – ‘मैं अभागा हूं, जो माता के कष्ट का कारण बना । मैं उनकी सेवा तो कुछ कर ही न सका ।’ उसके बाद देवताओं के कृत्य पर उसे क्रोध हो आया । उसने कहा – ‘मैं देवताओं से प्रतिशोध लूंगा । उन्होंने मेरे पिता का वध किया है, अत: मैं उनका वध करुंगा ।’ वनस्पितयों ने समझाया कि प्रतिशोध ठीक नहीं होता ।तुम्हारे माता पिता ने विश्व के हित के लिए आत्मदान किया है । तुम भी उन्हीं के पथ पर चलो । बच्चे के अंत:करण में प्रतिशोध की भावना शांत नहीं हुई । उसने भगवान शंकर की प्रार्थना की कि शत्रुओं के नाश के लिए आप मुझे शक्ति दीजिए । भगवान ने उसे कृत्या दी । पिप्पलाद ने उसे आज्ञा दी कि तू नेरे शत्रु देवताओं को खा जा । देवता भाग खड़े हुए और उन्होंने भगवान शंकर की शरण ली । भगवान शंकर पिप्पलाद को समझाया कि तुम्हारे पिता ने विश्व के हित के लिए अपना प्राण दे दिया है । उनके समान दयामय कौन होगा ? तुम्हारी माता भी उन्हीं के साथ पति लोक चली गयीं । उनकी समता किससे होगी ? तुम भी अपने माता पिता के रास्ते पर ही चलो । तुम्हारे प्रताप से देवता संकट में पड़ गए हैं । उन्हें तुम बचाओं । यहीं तुम्हारा कर्तव्य है । प्रतिशोध अच्छा नहीं होता । पिप्पलाद शांत हो गए । उन्होंने भगवान शंकर का उपदेश मान लिया । भगवान ने और देवताओं ने भी पिप्पलाद को वरदान मांगने को कहा । पिप्पलाद ने वर मांगा कि मैं अपने माता – पिता को देखना चाहता हूं । दिव्य लोक से उनके माता – पिता दिव्य विमान से उपस्थित हो गए । उन्होंने कहा – ‘पुत्र ! तुम धन्य हो । तुम्हारी कीर्ति स्वर्गलोक तक पहुंच चुकी है । तुमने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया है ।’ वतन समाप्त होते ही आकाश से पिप्पलाद के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी । देवताओं ने जय जयकार किया ।
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