हिन्दू पंचांगानुसार श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार भाई-बहन का एक-दूसरे के प्रति स्नेह, प्यार और अटूट विश्वास का प्रतीक है।
राखी बांधने का शुभ समय (Raksha Bandhan Muhurat)
हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षाबंधन के दिन राखी बांधने का शुभ समय हैं।)
विधि विधान (History and Vidhi of Raksha Bandhan)
भविष्यपुराण के अनुसार इस दिन राजा को मन्त्रों आदि द्वारा अपने दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र बंधवाना चाहिए। समय के साथ और पौराणिक गाथाओं के चलन के साथ यह त्यौहार अब भाई-बहन के त्यौहार का प्रतीक बन गया है।
इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है, उसके माथे पर तिलक लगाती है और उसकी दीर्घायु और प्रसन्नता के लिए ईश्वर से कामना करती है।
रक्षा का वादा (Promised to protect)
भाई भी इस पवित्र बंधन के मौके पर अपनी बहन की हर स्थिति में रक्षा करने की प्रतिज्ञा का अमूल्य उपहार देता है।
रक्षा बंधन – ऐतिहासिक प्रसंग
History of Raksha Bandhan
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राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बांधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आएगा।
राखी के साथ एक और ऐतिहासिक प्रसंग जुड़ा हुआ है। मुगल काल के दौर में जब मुगल बादशाह हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर रक्षा वचन ले लिया। हुमायूँ ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख़्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और मेवाड़ राज्य की रक्षा की।
सुभद्राकुमारी चौहान ने शायद इसी का उल्लेख अपनी कविता, ‘राखी’ में किया है:
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई
रक्षा करने दौड़ पड़े वे
राखी-बन्द शत्रु-भाई॥
सिकंदर और पुरू
सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया।
ऐतिहासिक युग में भी सिंकदर व पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया।
चंद्रशेखर आजाद का प्रसंग
बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फिरंगी उनके पीछे लगे थे।
फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद महिला को कहा, ‘मेरे सिर पर पांच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ़्तारी पर पांच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।
यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- “भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती।” यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।”