श्रीराम जय राम जय जय राम
श्री राम नाम महिमा
शास्त्रों के अनुसार संसार में ‘राम’ नाम से बढ़कर कुछ भी नहीं है। इसके हर अक्षर में सुख की प्राप्ति है। ‘रा’ के उच्चारण करने से सब पाप बाहर निकल जाते हैं। ‘म’ के उच्चारण से कपाट बंद जाते हैं, जिससे पाप फिर से मन में प्रवेश नहीं कर सकता।
।। ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट ।। … ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा ।।
श्री हनुमान चालीसा
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
आप सूक्ष्म रूप में श्रीसीताजी के दर्शन करते हैं, भयंकर रूप लेकर लंका का दहन करते हैं।
तुलसीदासजी लिखते है हनुमानजी ने सीता माता को अपना छोटा रुप दिखाया इसका तात्पर्य यह है कि जीव कितना ही बडा क्यों न हो परन्तु माता (भगवान) के सामने उसे छोटा ही होना चाहिए । तथा उन्होने आगे लिखा है ‘बिकट रुप धरि लंक जरावा‘’ अर्थात जीव भले ही सूक्ष्म हो परंतु उसमें अपार शक्ति होती है तथा उस शक्ति का उपयोग भगवान का साधन बनकर बडे से बडा काम कर सकता है । यहाँ तुलसीदासजी का यह संकेत है कि जीव को सुक्ष्म बनना चाहिए। अहम (Ego) को सूक्ष्म करना है । अहम ( Ego) कम करते जाओ । इसका अर्थ है कि सूक्ष्म बनो । अहम शूण्य ( Egoless) बनकर कैसे रहना यह प्रश्न है । भगवान का साधन (Instrument) बनकर काम करो तो अहम-शुण्य बन जायेगा । यह उसका उपाय है । फिर अहम नही सतायेगा । जो जीवन में छोटा बनता है, वही बडा बन सकता है । जिस प्रकार हनुमानजी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये तथा अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंकापुरी को जला दिया। लंका दहन के पश्चात् वहाँ से वापस आने पर श्रीरामने प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा-
कहु कपि रावन पालित लंका।
के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।। (मानस 5-32-2-1/2)
रामने पुछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बांके किले तुमने किस तरह जलाया । भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निराभिमान सेवक हनुमानजी को कैसे अच्छी लगती? अपनी प्रशंसा का श्रवण ही तो अभिमान उत्पन्न करा देता है । अत: हनुमानजी ने उत्तर दिया-
सो सब तव प्रताप रघुराई ।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ।। (मानस 5-32-5)
हनुमानजी नम्र होकर कहते है प्रभो इसमें मेरी कुछ भी बढाई नही है । यह सब आपका ही प्रताप है । हनुमानजी जानते ही थे कि ‘इन्द्रे्रपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैगुणै:’। स्वयं (प्रशंसा सुननेसे या) अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा करने से स्वर्गाधिपति इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाते है । अत: वे बोले-
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल ।। (मानस 5-33)
हे प्रभो! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठीन नही है । आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलनेवाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है । (अर्थात असम्भव भी सम्भव हो सकता है ।) हनुमानजी का जीवन ऐसा ही है । यह तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें समझाते है । इस प्रकार समझ पैदा कर मनुष्य को हनुमानजी की तरह सूक्ष्म बनना चाहिये । तथा भगवान का साधन बनकर प्रभु कार्य करना चाहिये ।
राम नाम माला
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम