अरे आनंद! कहाँ मर गया?… दीपेश जोर जोर से चिल्ला रहा था…दौड़कर आते हुए आनंद बोला- छोटे साहब दो मिनट देर हो गई। मैं पौधों को पानी पिला रहा था। दीपेश ने झल्लाते हुए कहा- तुम्हें अक्ल नहीं, मैं अपने किसी भी काम में एक मिनट की भी देरी सहन नहीं कर सकता…जाओं जल्दी से मेरे जूते साफ करो।
दीपेश एक राजपत्रित अधिकारी का इकलौता बेटा था… नौकर चाकर ,गाड़ी ,बंगला सभी सुविधाएं प्राप्त थीं …दीपेश के पिता एक ईमानदार, सरल हृदय अधिकारी थे…इसके विपरीत दीपेश एक घमंडी इंसान था जो अपने पिता के पद के घमंड में रहता था। वह किसी से सीधे मुंह बात नहीं करता था… उसका पढ़ने में भी मन न लगता था। जैसेतैसे बारहवीं कक्षा पास की। सुख सुविधाओं ने उसे घमंडी बना दिया था। पिता के सामने किसी से कुछ न कहता पर उनके पीछे दीपेश की गर्दन ऐंठी रहती।
यह सब देखकर फौज से रिटायर्ड दीपेश के दादा जी को बहुत बुरा लगता था क्योंकि वह तो हर समय घर पर रहते थे बहुत बार दीपेश को समझाते थे। बेटा दीपेश! जीवन में कुछ बऩों। मानवीय मूल्य़ों और जीवन के यथार्थ को समझो। खुद कुछ बनकर दिखाओ ,खुद सम्पन्न बनों और फिर फल से लदे पेड़ की तरह झुको और भूखे की क्षुधा को मिटाओ ,परन्तु तुम तो पिता के पद का नाजायज़ फायदा उठाते हो जिन सीढियाँँ के सहारे तुम खड़े हो यदि तुम्हारे पैरों के नीचे से निकाल दी जाएँ तो औंधे मुँह गिर पडोगे। दो दिन में तुम्हारी यह अकड़ पानी भरने लगेंगी। दादा जी की बातों का दीपेश पर कोई असर न होता।
एक दिन अचानक दीपेश के पिता दुनियाँ से चल बसे…अधिक पढ़ा लिखा न होने के कारण उसे कहीं नौकरी भी न मिल सकी। सरकारी सुविधाएं भी न रहीं। दादा जी और माँ का स्वर्गवास पहले ही हो चुका था… अब एक दुकान में नौकरी करके पत्नी बच्चों का गुजारा करना पड़ रहा था…दुकान का मालिक जब अपनी सम्पन्नता की अकड़ में दीपेश को अपशब्द क़हता और उसकी गर्दन ऐंठी रहती तब दीपेश की आँखों के सामऩे अतीत में घूमने लगता।पिता के पद की अकड़ में दीपेश ने अच्छी शिक्षा ग्रहण नहीं की, अब उसका का यथार्थ से सामना हुआ फर्क़ इतना था पात्रों का स्थाऩ बदल गया था।