संसार के अग्रणी वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन को वर्ष 1921 में भौतिकी के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वह जीवन के अंतिम समय तक नई-नई खोजों में तो लगे ही रहे, ईश्वर के प्रति भी उनकी अटूट निष्ठा बनी रही।
एक बार आइंस्टीन बर्लिन हवाई अड्डे से विमान में सवार हुए। वायुयान जब ऊपर पहुँचा, तो उन्होंने अपनी जेब से एक माला निकाल ली। उनकी बगल की सीट पर बैठे एक युवक ने यह देखा, तो वह आश्चर्य में पड़ गया।
उसने धीरे से उनसे कहा, ‘आज हमारे युग में अनेक वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं। आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों का युग है और आप जैसा युवक माला जपकर दकियानूसी होने का परिचय दे रहा है।’
उस युवक ने अपना कार्ड निकालकर उन्हें दिखाया और बोला, ‘मैं अंधविश्वास और ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध अभियान में लगा हूँ। आप भी इसमें सहयोग करें। ‘
आइंस्टीन उस युवक की बातें सुनकर मुसकराए और अपना कार्ड निकालकर उसे दिया । कार्ड पर जैसे ही उसने ‘अलबर्ट आइंस्टीन’ शब्द पढ़ा, तो हक्का-बक्का रह गया। वह तुरंत श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में झुक गया। वर्ष 1930 में जब गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर आइंस्टीन से मुलाकात करने बर्लिन गए, तो उस भेंट में दोनों महापुरुषों ने ईश्वर और धर्म के संबंध में चर्चा की थी । आइंस्टीन ने कहा था, ‘मैं ईश्वर के अस्तित्व की अनुभू कर चुका हूँ। अतः गर्व से अपने को धार्मिक कहता हूँ।’
ईश्वर का करिश्मा…..
इंसानी शरीर की उँगलियों में लकीरें तब बनने लगती हैं जब इंसान माँ के गर्भ में 4 माह तक पहुँचता है। ये लकीरें एक रेडियोएक्टिव लहर की सूरत में मांस पर बनना शुरू होती हैं इन लहरों को भी आकार DNA देता है। मगर हैरत की बात ये है कि पड़ने वाली लकीरें किसी सूरत में भी पूर्वजों और धरती पे रहने वाले इंसानों से मेल नहीं खातीं।
यानी लकीरें बनाने वाला इस तरह से समायोजन रखता है कि वो खरबों की तादाद में इंसान जो इस दुनियाँ में हैं और जो दुनियाँ में नहीं रहे उनकी उँगलियों में मौजूद लकीरों की शेप और उनके एक एक डिजाइन से अच्छे से परिचित है।
यही वजह है कि वो हर बार एक नए अंदाज का डिजाइन उसके उँगलियों पर बनाकर के ये साबित करता है…
है कोई मुझ जैसा निर्माता?
है कोई मुझ जैसा कारीगर ?
है कोई मुझ जैसा आर्टिस्ट ?
है कोई मुझ जैसा कलाकार ?
हैरानी की सोच इस बात पर खत्म हो जाती है कि अगर जलने से जख्म लगने या किसी वजह से ये फिंगरप्रिंट मिट जाए तो दुबारा हु बहु वही लकीरें जिनमें एक कोशिका की कमी नहीं होती, दोबारा या बार बार जाहिर हो जाती है।
पूरी दुनियाँ मिलकर भी इंसानी उंगली पर अलग अलग लकीरों वाली एक फिंगरप्रिंट नहीं बना सकती।
कोई तो है जो चला रहा है।