हनुमान प्रसाद पोद्दार एक प्रसिद्ध भारतीय साहित्यकार, समाज सुधारक और धार्मिक चिंतक थे। उन्हें भारत में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान और प्रचार-प्रसार में उनके योगदान के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। हनुमान प्रसाद पोद्दार ने ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की, जो धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण में अग्रणी संस्था है। ‘गीता प्रेस’ द्वारा प्रकाशित ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका ने भी धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हनुमान प्रसाद पोद्दार का जीवन और कार्य आज भी अनेक लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
ये वो हनुमान थे जिसने कलयुग में सनातन धर्म की जड़ो को फिर से सींचने का काम किया। स्व. श्री हनुमान प्रसाद पौद्दार जी जिन्होंने गीता_प्रेस गोरखपुर की स्थापना की ओर कलयुग में सनातन हिन्दुओ के घर घर मे वैदिक धर्म ग्रंथों, शास्त्रौ को पहुचाने का काम किया। आज हिन्दुओ के घर मे जो सनातन शास्त्र पहुच रहे है वो स्व श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की देन है।
वास्तव में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी हनुमान ही थे जब हिन्दू समाज अपने ज्ञान , विज्ञान, गौरव को भुल अंग्रेजी सभ्यता का दास बन रहा था, तब इन्होंने हनुमान की भांति संजीवनी रुपी गीता प्रेस गोरखपुर (सनातन शक्तिपुंज) की स्थापना कर जो सनातनियों को जड़ से जोड़े रखने का भगीरथी प्रयास किया । उसके लिए हिन्दू समाज हमेशा इनका ऋणी रहेगा।
ऐसे धर्मरक्षक महावीरो को नई पीढ़ी द्वारा भूलना सिर्फ गलती नही महापाप होगा। इन लोगो ने अभावो में रहकर भी कैसे संस्थान खड़े किए होंगे जो सम्पूर्ण विश्व मे वैदिक धर्म ग्रंथ शास्त्र पहुचाने वाले सबसे बडे हिन्दू संस्थान बनकर उभरे।
न पैसा न संसाधन फिर भी हिंदू समाज की आने वाली पीढ़ियों तक शास्त्रो का अमर ज्ञान पहुचाने के लिए अपना सबकुछ वार दिया।
चाहे रामचरित मानस हो या फिर महाभारत, हनुमान चालीसा हो या ऐसी ही धार्मिक पुस्तकें, गीता हो या रामायण। सनातन धर्म की पुस्तकें अगर हिंदू परिवारों में है, मंदिरों की शोभा बढ़ा रही हैं, तो उसका एक बड़ा जरिया है गोरखपुर का गीता प्रेस। इसी गीता प्रेस को इस बार का अंतराष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार देने का फैसला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने गीता प्रेस का चयन किया है।
गीता प्रेस की स्थापना तीन मई 1923 को हुई थी। इसके संस्थापक रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार। भाई जी के नाम से विख्यात पोद्दार गीता प्रेस के संपादक और रणनीतिकार भी रहे।
भाई जी के पत्रों का संग्रह अरसा पहले प्रकाशित हुआ, ‘पत्रों में समय-संस्कृति’।
इसका जिक्र भाई जी ने खुद कहीं नहीं किया। किसी से इसकी जानकारी भी दी हो। इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन इसकी जानकारी मिलती है देश की हस्तियों से हुए उनके पत्र व्यवहार से।
इस पुस्तक में भाई जी का तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को लिखा पत्र भी है। इस पत्र के जरिए समझा जा सकता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार की शख्सियत कैसी रही। उनका व्यक्तित्व कितना ऊंचा रहा, उनकी जिंदगी में कितनी गहराइयां रहीं, इस पत्र में भाई जी ने खुद के लिए लिखे पंत के पत्र को उद्धृत किया है।
भाई जी लिखते हैं, “आपने मेरे लिए लिखा है कि आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष को क्या, सारी मानवी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझकर ही आपको भारत रत्न की उपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया। आप इस उपाधि से बहुत-बहुत ऊंचे स्तर पर हैं। मैं तो आपको हृदय से नमस्कार करता हूं।”
बहरहाल हनुमान प्रसाद पोद्दार का व्यक्तित्व विराट था। उनका गांधी से लेकर कांग्रेसी दिग्गज श्रीप्रकाश, प्रेमचंद, सूर्यकांत निराला, गुरु गोलवलकर जैसी हस्तियों से संपर्क था। उनके पत्र संग्रह में इन लोगों के पत्र भी शामिल हैं।
संग्रह में एक पत्र ऐसा है, जिसमें भाई जी ने महात्मा गांधी को लिखा है, इस पत्र में भाई जी, गांधी जी से गीता प्रेस की पत्रिका कल्याण के रामायणांक पढ़ने का सुझाव दिया है। इसी पत्र में भाई जी ने ईश्वर की सत्ता मानने की भी सलाह गांधी जी को दी है। इस पत्र के जवाब में गांधी जी ने 8 अप्रैल 1932 को भाई जी को भी एक पत्र भेजा। इस चिट्ठी में गांधी ने लिखा है कि ईश्वर में विश्वास रखने से ही मैं जिंदा बच गया।
देश की धर्मनिरपेक्षता को लेकर जब चर्चा होती है,.बौद्धिकों का एक तबका बताते नहीं थकता कि पंडित नेहरू नास्तिक थे, लिहाजा वे धर्मनिरपेक्ष थे। इसी वजह से नेहरू भारत में धर्मनिरपेक्षता की मजबूत नींव आजाद भारत में रख सके। लेकिन पोद्दार को लिखे पत्र में गोविंद बल्लभ पंत जो लिखते हैं, उससे नेहरू को लेकर बनी यह धारणा भी खंडित होती है, पंत ने लिखा है, “जवाहरलाल भी, ऊपर से कुछ भी कहें, आस्तिक हैं।”
गीता प्रेस कल्याण नाम से पत्रिका भी प्रकाशित करता है।.कल्याण ने एक नियम बनाया। ना तो वह किसी से विज्ञापन लेगा, ना ही किसी की पुस्तक समीक्षा छापेगा। इसकी भी एक कहानी है, जब भाई जी ने कल्याण छापने का निर्णय लिया तो उन्होंने तमाम हस्तियों से इस बारे में उनकी राय मांगी। तब गांधी जी ने उन्हें सुझाया था कि किसी से ना तो विज्ञापन लेना, ना ही किसी की पुस्तक की समीक्षा छापना। गांधी जी ने तर्क दिया था, अगर विज्ञापन लोगे तो विज्ञापन देने वाले का दबाव झेलना होगा। उसकी मर्जी की चीजें भी छापनी पड़ेंगीं। अगर किसी की किताब की समीक्षा छापी और किताब खराब हुई तो या तो उसकी प्रशंसा छापनी होगी या फिर सच लिखना होगा, सच लिखा तो किताब वाला दुश्मन बन जाएगा।
कल्याण अब तक गांधी का सुझाव मान रही है। अगर गीता प्रेस से छपी धार्मिक पुस्तकों की संख्या की बात करें तो हैरत होती है, गीता प्रेस अब तक बिना कोई विज्ञापन लिए, बिना किसी प्रूफ की गलती के धार्मिक और आध्यात्मिक किताबों की 41 करोड़ 70 लाख प्रतियां छाप चुकी है। इनमें श्रीमद्भगवद्गीता की 16 करोड़ 21 प्रतियां भी शामिल हैं।
आज के दौर में भी गीता प्रेस की किताबें बाजारभाव से बेहद कम कीमत पर उपलब्ध हैं। एक बात और गीता प्रेस ने पुस्तकों की बाइंडिंग के लिए कभी पशुओं की चर्बी मिली गोंद या सरेस का प्रयोग नहीं किया है।
पिछले कुछ वर्षों से लागत बढ़ने और आमदनी कम होने की वजह से गीता प्रेस के बंद होने की अफवाहें बढ़ती रही हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस के लिए नया वरदान बन सकता है। चलते-चलते एक सवाल जरूर उठता है। अगर भाई जी जिंदा होते तो क्या वे यह पुरस्कार स्वीकार कर पाते?
पोद्दार जी कौन है?
हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892-1971) एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता, साहित्यकार, पत्रिका संपादक और परोपकारी थे। वह आध्यात्मिक पत्रिका, कल्याण के संस्थापक संपादक थे, जिसे घनश्याम जालान और जय दयाल जी गोयेन्दका द्वारा स्थापित गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था।
गीता प्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने क्यों ठुकराया भारत रत्न?
भाई जी का जीवन भी कुछ ऐसा ही रहा। पूरी जिंदगी उन्होंने संत जैसी जिंदगी गुजारी।
भाई जी की जिंदगी की कई अद्भुत कहानियां हैं। जिनमें से कई कहानियां अनसुनी-सी रह गईं। ऐसा ही एक वाकया है, उनके भारत रत्न पुरस्कार अस्वीकार करना।
पद्म पुरस्कारों के लिए जोड़तोड़ करते तमाम लोगों को देखा गया है, भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।
दरअसल हुआ यह था कि भाई जी को भारत रत्न देने का प्रस्ताव तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने रखा था। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सहमति से तब के गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को गोरखपुर भेजा था। गोरखपुर में भाई जी से गोविंद बल्लभ पंत की मुलाकात हुई और उन्हें भारत रत्न देने का प्रस्ताव रखा। कहा जाता है कि पंत ने इस संदर्भ में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का पत्र भी भाई जी को दिया, लेकिन भाई जी ने भारत रत्न का प्रस्ताव विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। जाहिर है कि वह पत्र भी उन्होंने लौटा दिया।