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श्रीमद्भगवद्गीता तीसरे अध्याय के पाठ का महत्व

श्री नारायण बोले- हे लक्ष्मी एक महामूर्ख व्यक्ति अकेला ही एक वन में रहता था, गलत कार्यों से उसने बहुत सा धन इकट्ठा किया। किसी कारण से वह सब धन जाता रहा। अब वह व्यक्ति बहुत चिंतित रहने लगा। किसी से पूछता कि ऐसा उपाय बताओं जिससे पृथ्वी में गड़ा धन मुझे मिले। किसी से पूछता कोई उपाय बताओ, जिसे लगाने से पृथ्वी में गड़ा धन दिखने लगे। तब किसी ने कहा मांस मंदिरा खाया पिया कर, तक वह खोटा कर्म करने लगा, चोरी करने लगा। एक दिन धन की लालसा कर चोरी करने गया, मार्ग में चोरों ने उसे मार दिया। तदनन्तर उसने प्रेत की योनि पाई, उस प्रेत योनि में उसे बड़ा दुख हुआ। एक वट वृक्ष पर सात दिन चिल्लाया करता कि कोई ऐसा भी है जो मुझे इस अधम देह से छुड़ावे? कुछ समय बाद उसकी पत्नी जो गर्भवती थी उसने एक पुत्र को जन्म दिया। जब उसका पुत्र बड़ा हुआ तो एक दिन अपनी माता से उसने पूछा मेरा पिता क्या व्यापार करता था और उनका देहांत किस प्रकार हुआ।

तब उसकी माता ने बताया कि हे बेटा! तेरे पिता के पास बहुत धन था, वह सब यूं ही जाता रहा, वह धन के चले जाने से बहुत चिंतित रहने लगा। एक दिन धन की लालसा से चोरी करने गए। लेकिन मार्ग में चोरों ने उन्हें मार डाला। तब बेटे ने कहा हे माता! उनकी गति कराई थी? माता ने कहा नहीं कराई। बेटे ने पूछा हे माता उनकी गति करानी चाहिए। मां ने कहा अच्छी बात है। तब वह पंडितों से पूछने गया और जाकर प्रार्थना की हे स्वामी मेरा पिता एक दिशा में जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए। अत: उनका उद्धार किस तरह हो सकता है? पंडितों ने कहा तू गया जी जाकर उसकी गति कर तब पितरों का उद्धार होगा। यह सुन , वह अपनी माता की आज्ञा लेकर गयाजी को गमन किया। प्रयाग राज का दर्शन स्नान करके आगे को चला, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया, वहां उसको बड़ा भय प्राप्त हुआ। यह वहीं, वृक्ष था, जहां उसका पिता प्रेत-योनि प्राप्त हुआ था। उसी जगह चोरो ने उसको मारा था। तब उस बालक ने अपना गुरु मंत्र पढ़ा। उसका एक और नियम था। वह एक अध्याय श्री गीताजी का पाठ नित्य किया करता था। उस दिन उसने श्री गीताजी के तीसरे अध्याय का पाठ उस वृक्ष के नीचे बैठकर किया जिसे उसके पिता ने प्रेत की योनि में सुना तो सुनते ही उसकी प्रेत योनि छूट गई और उसका शरीर देवताओं के समान हो गया।

स्वर्ग से विमान आए और वह विमान पर चढ़कर पुत्र के सामने आया और आशीर्वाद देकर कहा हे पुत्र! मैं तेरा पिता हूं, जो मरकर प्रेत हुआ था। तेरे इस पाठ करने से मुझे देवताओं के समान शरीर मिला है। अब मेरा उद्धार हुआ है और तेरी कृपा से मैं स्वर्ग को जा रहा हूं। अब तू गयाजी को अपनी खुशी से जा। इतना सुनकर पुत्र ने कहा हे पिताजी! कुछ और आज्ञा करो, जो मैं आपकी सेवा करूं। तब उस देव देही ने कहा देख मेरी सात पीढ़ियों के पितृ नरक में पड़े हैं। अब तू श्री गीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ करके उनको भी इस दुख से मुक्ति प्रदान कर। इतना वचन कहकर जब वह स्वर्ग को चले गए। तब इस बालकर ने वहीं पर पुन: गीताजी के तीसरे अध्याय का पाठ किया और सब पितरों को उसका पुण्य देकर बैकुण्ठगामी किया। जो प्राणी श्री गीताजी का पाठ करता है या सुनता है, उसका फल कहां तक कहें, कहने में नहीं आ सकता। तब श्री भगवान जी बोले-हे लक्ष्मी! यह तीसरा अध्याय का जो फल मैंने तुमसे कहा, वह तुमने सुना है।

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