सुदामा नाम के एक ब्राह्मण श्रीकृष्ण के परम मित्र थे। उन्होंने श्री कृष्ण के साथ गुरुकुल में शिक्षा पायी थी। वे ग्रहस्थ होने पर भी संग्रह- परिग्रह से दूर रहते हुए प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ भी मिल जाता उसी में संतुष्ट रहते थे। भगवान की उपसना और भिक्षाटन यही उनकी दिनचर्या थी। उनकी पत्नी परम पतिव्रता और अपने पति के साथ हर अवस्था में सतुष्ट रहने वाली थी।
एक दिन दु:खिनी पतिव्रता भूख से कांपते हुए अपने पति के पास गयी और बोली- भगवन! साक्षात लक्ष्मी पति भगवान श्रीकृष्ण आपके सखा है। वे ब्राह्मणों के परम भक्त है। आप उनके पास जाइए। जब वे आपकी व्यथा जानेगे। तो वे आपको बहुत सा धन देंगे। वे इस समय द्वारका में निवास कर रहे है। आप वहां अवश्य जाइए, मुझे विश्वास है कि वे दीनानाथ आपके बिना कहे ही आपकी दरिद्रता दूर कर देंगे।
जब सुदामा की पत्नी ने उनसे कई बार द्वारका जाने की प्रार्थना की। तब उन्होंने सोचा – धन की तो कोई बात नहीं है परंतु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हो जाऐंगे। ऐसा सोचकर सुदामा ने द्वारका जाने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा घर में कोई वस्तु श्रीकृष्ण को भेंट देने लायक हो तो उसे दो। ब्राह्मणी पास के ब्राह्मणों के घर से चार मुट्ठी चिउड़े मांगकर एक कपड़े में बांध कर पतिदेव को दे दिए। ब्राह्मण देवता उन चिउड़ो को लेकर द्वारका के लिए चल पड़े।
द्वारका पहुंचने पर सुदामा अन्य ब्राह्मणों के साथ पूछते हुए श्रीकृष्ण के महल में पहुंचे। सब लोग उनकी दीन हीन अवस्था देककर उनपर हंस रहे थे। उन्होंने द्वारपाल से कहा भैया- श्रीकृष्ण से कह दो की उनसे मिलने उनके बचपन का सखा सुदामा आया है। पहले तो द्वारपाल को विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन बाद में उसने जा कर श्रीकृष्ण से कहा- प्रभु दरवाजे पर एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण खड़ा है। उसकी दरिद्रता देखकर द्वारका की धरती भी आश्चर्य चकित है। वह अपना नाम सुदामा बताता है। कहता है मै श्री कृष्ण का मित्र हूं।
सुदामा नाम सुनते ही श्रीकृष्ण की खुशी का ठिकाना ना रहा और नंगे पांव दौड़ते हुए दरवाजे तक पहुंचे। उन्होंने सुदामा को अपने अंगपाश में समेट लिया- मित्र तुम आए तो लेकिन बहुत कष्ट भोगने के बाद आए। द्वारका में तुम्हारा स्वागत है। भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को ले जाकर अपने पास बिठाया , उन्हे स्नान कराकर रेशमी वस्त्र पहनाए। रुक्मिणी स्वयं उन्हे पंखा झलने लगी। बहुत समय तक बचपन की बात करने के बाद श्री कृष्ण ने कहा- मित्र भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है। पहले तो सुदामा संकोच करते रहे, लेकिन अंत में श्रीकृष्ण ने चिउड़े निकाल ही लिए। भगवान ने उन तीन मुट्ठी चिउड़ो के बदले तीनों लोको की सम्पत्ति दे डाली।
धन्य है भगवान श्रीकृष्ण की मित्रवत्सलता।
एक और सच्ची दोस्ती की कहानी
कृष्णा शाम को ऑफिस से घर लौटा, तो पत्नी ने कहा कि आज तुम्हारे बचपन के दोस्त आए थे, उन्हें दस हजार रुपए की तुरंत आवश्यकता थी, मैंने तुम्हारी आलमारी से रुपए निकालकर उन्हें दे दिए। कहीं लिखना हो, तो लिख लेना। इस बात को सुनकर उसका चेहरा हतप्रभ हो गया, आंखें गीली हो गईं, वह अनमना-सा हो गया। पत्नी ने देखा-अरे! क्या बात हो गई। मैंने कुछ गलत कर दिया क्या? उनके सामने तुमसे फोन पर पूछने पर उन्हें अच्छा नहीं लगता। तुम सोचोगे कि इतना सारा धन मैंने तुमसे पूछे बिना कैसे दे दिया। पर मैं तो यही जानती थी कि वह तुम्हारा बचपन का दोस्त है। तुम दोनों अच्छे दोस्त हो, इसलिए मैंने यह हिम्मत कर ली। कोई गलती हो, तो माफ कर दो।
मुझे दु:ख इस बात का नहीं है कि तुमने मेरे दोस्त को रुपए दे दिए। तुमने बिलकुल सही काम किया है। तुमने अपना कर्तव्य निभाना, मुझे इसकी खुशी है। मुझे दु:ख इस बात का है कि मेरा दोस्त तंगी में है, यह मैं कैसे समझ नहीं पाया। उस दस हजार रुपए की आवश्यकता आन पड़ी। इतने समय में मैंने उसका हाल-चाल भी नहीं पूछा। मैंने कभी यह सोचा भी नहीं कि वह मुश्किल में होगा। मैं भी कितना स्वार्थी हूँ कि अपने दोस्त की मजबूरी नहीं समझ पाया। जिस दोस्ती में लेने-देने का गणित होता है, वह केवल नाम की दोस्ती होती है। उसमें अपनत्व नहीं होता। हमने किसी का एक काम किया है, तो सामने वाला भी हमारा काम करेगा, ऐसी अपेक्षा रखना ये दोस्ती नहीं है। दोस्ती को दिल के दरवाजे की खामोश घंटी है, साइलेंट बेल है, जो बजे या न बजे, हमें भीतर से ही इसकी आवाज सुन लेनी चाहिए। यही होती है सच्ची दोस्ती।
translate in English
Sudaamaa naam ke ek braahmaṇa shreekriṣṇa ke param mitr the. Unhonne shree kriṣṇa ke saath gurukul men shikṣaa paayee thee. Ve grahasth hone par bhee sngrah- parigrah se door rahate hue praarabdh ke anusaar jo kuchh bhee mil jaataa usee men sntuṣṭ rahate the. Bhagavaan kee upasanaa aur bhikṣaaṭan yahee unakee dinacharyaa thee. Unakee patnee param pativrataa aur apane pati ke saath har avasthaa men satuṣṭ rahane vaalee thee. Ek din duahkhinee pativrataa bhookh se kaanpate hue apane pati ke paas gayee aur bolee- bhagavan! Saakṣaat lakṣmee pati bhagavaan shreekriṣṇa aapake sakhaa hai. Ve braahmaṇaon ke param bhakt hai. Aap unake paas jaa_ie. Jab ve aapakee vyathaa jaanege. To ve aapako bahut saa dhan denge. Ve is samay dvaarakaa men nivaas kar rahe hai. Aap vahaan avashy jaa_ie, mujhe vishvaas hai ki ve deenaanaath aapake binaa kahe hee aapakee daridrataa door kar denge. Jab sudaamaa kee patnee ne unase ka_ii baar dvaarakaa jaane kee praarthanaa kee. Tab unhonne sochaa – dhan kee to koii baat naheen hai parntu bhagavaan shreekriṣṇa ke darshan ho jaa_ainge. Aisaa sochakar sudaamaa ne dvaarakaa jaane kaa nishchay kiyaa. Unhonne apanee patnee se kahaa ghar men koii vastu shreekriṣṇa ko bhenṭ dene laayak ho to use do. Braahmaṇaee paas ke braahmaṇaon ke ghar se chaar muṭṭhee chiude maangakar ek kapade men baandh kar patidev ko de die. Braahmaṇa devataa un chiudo ko lekar dvaarakaa ke lie chal pade. Dvaarakaa pahunchane par sudaamaa any braahmaṇaon ke saath poochhate hue shreekriṣṇa ke mahal men pahunche. Sab log unakee deen heen avasthaa dekakar unapar hns rahe the. Unhonne dvaarapaal se kahaa bhaiyaa- shreekriṣṇa se kah do kee unase milane unake bachapan kaa sakhaa sudaamaa aayaa hai. Pahale to dvaarapaal ko vishvaas hee naheen huaa, lekin baad men usane jaa kar shreekriṣṇa se kahaa- prabhu daravaaje par ek bahut hee gareeb braahmaṇa khadaa hai. Usakee daridrataa dekhakar dvaarakaa kee dharatee bhee aashchary chakit hai. Vah apanaa naam sudaamaa bataataa hai. Kahataa hai mai shree kriṣṇa kaa mitr hoon. Sudaamaa naam sunate hee shreekriṣṇa kee khushee kaa ṭhikaanaa naa rahaa aur nnge paanv daudte hue daravaaje tak pahunche. Unhonne sudaamaa ko apane angapaash men sameṭ liyaa- mitr tum aae to lekin bahut kaṣṭ bhogane ke baad aae. Dvaarakaa men tumhaaraa svaagat hai. Bhagavaan shreekriṣṇa ne sudaamaa ko le jaakar apane paas biṭhaayaa , unhe snaan karaakar reshamee vastr pahanaa_e. Rukmiṇaee svayn unhe pnkhaa jhalane lagee. Bahut samay tak bachapan kee baat karane ke baad shree kriṣṇa ne kahaa- mitr bhaabhee ne mere lie kyaa bhejaa hai. Pahale to sudaamaa snkoch karate rahe, lekin ant men shreekriṣṇa ne chiude nikaal hee lie. Bhagavaan ne un teen muṭṭhee chiudo ke badale teenon loko kee sampatti de ḍaalee. Dhany hai bhagavaan shreekriṣṇa kee mitravatsalataa.
One More story on True friendship
When Krishna returned home from office in the evening, the wife said that your childhood friends had come today, they urgently needed ten thousand rupees, I took out the money from your almirah and gave it to them. If you want to write somewhere, then write. Hearing this, his face became bewildered, his eyes became moist, he became helpless. Wife saw – Hey! What is the matter. did i do something wrong? They don’t like asking you on the phone in front of them. You will think how I gave so much money without asking you. But I knew that he is your childhood friend. You two are good friends, that’s why I took this dare. Please forgive me if there is any mistake.
I am not sad that you gave money to my friend. You have done absolutely right thing. I am glad that you have done your duty. I am sorry that my friend is in trouble, how could I not understand this. The need for that ten thousand rupees came. I didn’t even ask about his well being during this time. I never thought that he would be in trouble. I am also so selfish that I could not understand the helplessness of my friend. The friendship in which there is mathematics of give and take, is a friendship in name only. There is no affinity in him. If we have done a work for someone, then the person in front will also do our work, it is not friendship to have such an expectation. Friendship is a silent bell at the door of the heart, it is a silent bell, whether it rings or not, we should listen to its voice from within. This is what true friendship is.