एक समय की बात है गुरु अपने शिष्यों के साथ कहीं दूर जा रहे थे। रास्ता काफी लंबा था चलते – चलते सभी थक से गए थे। अब उन्हें विश्राम करने की इच्छा हुई , किंतु अगर विश्राम करते तो गंतव्य स्थल पर पहुंचने में अधिक रात हो जाती। इसलिए वह लोग निरंतर चल रहे थे। रास्ते में एक नाला …
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मानवता का गुण
ऋग्वेद का एक मंत्र है- मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो। वैदिक विद्वान् वेदमूर्ति पं. सातवलेकर ने एक सभा में जब मंत्र दोहराया-मनुर्भव, तो एक सज्जन ने पूछा, ‘क्या सभा में उपस्थित लोग मनुष्य नहीं हैं?’ पंडित सातवलेकरजी ने कहा, ‘भाई! हर जीव के कुछ लक्षण होते हैं। यदि मानवता नहीं है, तो कोई मानव कैसे कहला सकता है? लक्षणों से ही …
Read More »धन की तृष्णा
सभी धर्मशास्त्रों में धन-संपत्ति तथा अन्य सांसारिक पदार्थों के प्रति तृष्णा को पतन का मूल कारण बताया गया है। महाभारत के वन पर्व में कहा गया है, तृष्णा ही सर्वपापिष्ठा अर्थात् तृष्णा सर्वाधिक पापमयी है। तृष्णा के कारण मानव घोर पाप कर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता। विष्णु पुराण में कहा गया है, ‘जो व्यक्ति धन-संपत्ति को भगवान् की धरोहर …
Read More »प्रेम ही धर्म
स्वामी विवेकानंद विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने 1894 में अमेरिका गए। वहाँ एक बुद्धिजीवी ने उनसे पूछा, ‘आपने असंख्य धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया है। एक ही शब्द में क्या धर्म का सार व्यक्त कर सकते हैं?’ स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया, प्राणी मात्र में भगवान् के दर्शनकर सभी से प्रेम करो, यही धर्म का सार है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘निष्कपट …
Read More »संयम और सदाचार
भगवान् महावीर अपने उपदेशों में आत्मा की शुद्धि पर विशेष ध्यान देने की प्रेरणा दिया करते थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ‘अहिंसा, संयम, तप, क्षमा, स्वाध्याय से आत्मा शुद्ध होती है। आत्मा को जानने के तीन साधन हैं-सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र। जो राग-द्वेष, मोह-मद आदि विकारों को जीत लेता है, वह स्वयं ही आत्मा से परमात्मा …
Read More »तृष्णा के दुष्परिणाम
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी नरेश राजा विश्वसेन के पुत्र थे। पिता ने सोलह वर्ष की आयु में ही उन्हें सत्ता सौंप दी थी, लेकिन कुछ ही वर्षों में सांसारिक सुखों से उन्हें विरक्ति होने लगी। एक दिन उन्होंने अपने पिताश्री से कहा, ‘मैंने काफी समय तक राजा के रूप में सांसारिक सुख-सुविधाओं का उपभोग किया है, फिर भी सुख के …
Read More »ब्रह्मविद्या का ज्ञान
सतयुग में महर्षि दध्यंग आथर्वण अग्रणी ब्रह्मवेत्ता के रूप में विख्यात थे। देव शिरोमणि इंद्र उनकी ख्याति सुनकर एक दिन उनके आश्रम में पहुँचे। इंद्र ने कहा, ‘महर्षि, मेरी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मुझे वरदान देने का वचन दें। महर्षि आतिथ्य स्वीकार को बहुत महत्त्व देते थे, अतः उन्होंने वचन देकर उनसे बैठने को कहा। महर्षि ने पूछा, ‘अतिथिवर, …
Read More »सोने का अंडा
बहुत पहले की बात है एक गांव में रमेश नाम का एक व्यक्ति रहता था। उसके माँ बाप बचपन में ही गुजर चुके थे। वह खेतों में काम करके अपना गुजारा बड़ी मुश्किल से करता था। उसके पास एक मुर्गी थी। जो उसको रोज़ एक अंडा देती थी। जब उसके पास कभी खाने के लिए कुछ नहीं होता तो वह …
Read More »परोपकाराय पुण्याय
राजगृह में धन्य नामक बुद्धिमान सेठ रहता था। उसकी पत्नी का निधन हो गया। उसकी चार पुत्रवधुएँ थीं-उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। सेठ ने सोचा कि क्यों न इन चारों बहुओं को परखकर किसी एक को घर का दायित्व सौंप दिया जाए। एक दिन उसने चारों बहुओं को पास बिठाया और कहा, तुम चारों को धान के पाँच-पाँच दाने देता …
Read More »विनय और समर्पण
ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं तथा भक्तों ने भगवान् से अपने अवगुणों को अनदेखा कर शरण में लेने की प्रार्थना की है। संत कवि सूरदास ‘प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो’ पंक्तियों में विनयशीलता का परिचय देते हुए शरणागत करने की प्रार्थना करते हैं, तो तुलसीदास रामजी से पूछते हैं, ‘काहे को हरि मोहि बिसारो। संत पुरंदरदास खुद को दुर्गुणों का दास बताते …
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