बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की कई साल से कुछ खबर ही नही, कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की . की पारियाँ नहाने लगी नदी गुनगुनाई ख़यालात की मैं चुप था तो चलती हवा रुक गयी, ज़ुबान सब समझते हैं जज़्बात की सितारों को शायद खबर ही नही, मुसाफिर ने जाने कहाँ रात की मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पूरब का, बरसती हुई रात …
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