स्वामी रामतीर्थ एक बार किसी तीर्थ में भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक साधुवेशधारी रेती पर बैठा हुआ है। उसके चारों ओर अग्नि प्रज्ज्वलित थी।
उसके आस-पास देखने वालों की भारी भीड़ लगी थी। पूछने पर पता चला कि वह कोई तपस्वी बाबा हैं और वहाँ तप कर रहे हैं। इस पर स्वामीजी ने कहा, ‘तप एकांत में किया जाता है। उसका इस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन उचित नहीं।
महर्षि पतंजलि ने लिखा है, ‘समस्त द्वंद्वों को सहन करना ही तप है।’ आचार्य चाणक्य कहते हैं, अपनी इंद्रियों का निग्रह करना ही तप है। हम अपनी कर्मेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों पर संयम करें, तभी तपस्वी कहलाने के अधिकारी हैं।
मुनि याज्ञवल्क्य ने भी लिखा है, ‘वही सच्चा संत और तपस्वी है, जिसने इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है । आत्मसंयमी ही सच्चा तपस्वी है।’
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है, ‘स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त करनेवाला, यज्ञ, दानादि सत्कर्म करनेवाला, दूसरों के हित के लिए तत्पर रहनेवाला ही मुनि है।
धर्मशास्त्रों में साधुता, तप, उपवास आदि की जो व्याख्या की गई है, उसके विपरीत आचरण करनेवालों को ही आज संत, महात्मा, तपस्वी की संज्ञा दी जाने लगी है,
पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जो धन-संपत्ति की इच्छा से रहित हो जाता है, जिसे सांसारिक पदार्थों के प्रति किं चित भी आसक्ति नहीं रहती, जिसे लोभ-मोह छू तक नहीं गया है, वही पूर्ण संयमी, शांत बनकर साधुता का पात्र बन सकता है। सच्चा साधु ही तप द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बनता है।
English Translation
Swami Ramtirtha was once visiting a pilgrimage site. He saw that a saintly person is sitting on the sand. The fire was kindled around him.
There was a huge crowd of people watching around him. On enquiry, it came to know that he is some ascetic Baba and is doing penance there. To this Swamiji said, ‘Tapas are done in solitude. His public display like this is not proper.
Maharishi Patanjali has written, ‘Tolerating all dualities is austerity.’ Acharya Chanakya says, controlling your senses is penance. If we exercise restraint on our sense organs and senses, then only we have the right to be called ascetic.
Muni Yajnavalkya has also written, ‘He is the true saint and ascetic, who has succeeded in attaining control over the senses. Self-restraint is the true ascetic.
In the Brihadaranyakopanishad, it is said, ‘The one who acquires knowledge through self-study, performs sacrifices, charity, good deeds, is ready for the benefit of others.
Contrary to what has been explained in the scriptures of saintliness, austerity, fasting etc., today only those who conduct themselves are being called saints, mahatmas, ascetics,
But we should not forget that the one who becomes devoid of desire for wealth, who has no attachment to worldly things, who has not touched greed and attachment, he becomes completely restrained, calm and becomes the object of saintliness. could. Only a true sage becomes entitled to attain salvation by penance.