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सांप की सवारी करने वाले मेंढक की कहानी!!

सालों पहले वरुण पर्वत के पास एक राज्य बसा हुआ था। उस राज्य में एक बड़ा सा सांप मंदविष भी रहता था। बूढ़ा होने की वजह से वह आसानी से अपना शिकार ढूंढ नहीं पाता था। एक दिन उसने तरकीब सोची। वो तुरंत मेंढकों से भरे हुए एक तालाब के पास पहुंच गया।

वहां वह दुखी सा होकर एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। तभी पास के पत्थर पर बैठे एक मेंढक ने उसे देखा। उस मेंढक ने थोड़ी देर बाद सांप से पूछा, “चाचा, क्या बात है, आज आप खाने की तलाश नहीं कर रहे हैं। अपने लिए भोजन नहीं जुटाएंगे।” इतना सुनते ही सांप ने रोनी सी सूरत बनाकर मेंढक को कहानी सुनाई।

सांप ने कहा, “मैं आज भोजन की तलाश में किसी मेंढक के पीछे-पीछे जा रहा था। अचानक से मेंढक ब्राह्मणों के झुंड में जाकर छुप गया। मेंढक को भोजन बनाने के चक्कर मैंने गलती से एक ब्राह्मण की बेटी को काट दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। इससे नाराज होकर ब्राह्मण ने मुझे श्राप दे दिया। उन्होंने मुझे श्राप देते हुए कहा कि तुझे अपना पेट भरने के लिए मेंढकों की सवारी बनना पड़ेगा। इसी वजह से मैं इस तालाब के पास आया हूं।

यह बात सुनते ही वह मेंढक तुरंत तालाब के अंदर गया और अपने राजा को सारी बातें बताई। राजा कहानी सुनकर हैरान हुआ, पहले तो उसे बिलकुल भी यकीन नहीं हुआ, लेकिन कुछ देर सोच विचार करने के बाद मेंढकों का राजा जलपाक, तालाब से बाहर निकलकर एकदम कूदते हुए सांप के फन पर जाकर बैठ गया। राजा को ऐसा करते हुए देखकर अन्य मेंढकों ने भी ऐसा ही किया।

सांप समझ गया था कि मेंढक अभी मेरी परीक्षा ले रहे हैं। सांप भी बिना विचलित हुए आराम से सबको अपने फन पर कूदने दे रहा था और उन्हें घुमा रहा था। इसके बाद मेंढकों के राजा ने कहा, “जितना मजा मुझे सांप की सवारी करके आया, उतना मुझे आज तक किसी की सवारी करके नहीं आया।” मेंढकों का भरोसा जीतने के बाद अब धीरे-धीरे सांप रोज मेंढकों की सवारी बनने लगा। कुछ दिन बाद चतुर सांप ने अपने चलने की गति थोड़ी धीमी कर दी।

यह देखकर मेंढकों के राजा जलपाक ने पूछा, “हे! सर्प तुम्हारी चाल इतनी धीमी क्यों है?” इसके जवाब में सांप ने कहा, “एक तो मैं बूढ़ा हूं और ब्राह्मण के श्राप की वजह से बहुत दिनों से भूखा भी हूं। इसी वजह से मेरी गति कम हो गई है।” इतना सुनते ही राजा ने कहा तुम छोटे-छोटे मेंढक को खा लो। यह सुनकर मन ही मन सांप बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, “राजन मुझे ब्राह्मण का श्राप है। मैं मेंढक खा नहीं सकता हूं, लेकिन अगर आप कहते हैं तो मैं खा लेता हूं।” ऐसा करते-करते वह रोज छोटे-छोटे मेंढक खाने लगा और वह तंदुरुस्त हो गया।

अब सांप को रोज बिना किसी मेहनत के खाना मिल रहा था। सांप काफी प्रसन्न था। मेंढक सांप की चाल अब तक नहीं समझ पाए थे। मेंढक के राजा को भी सांप की इस साजिश की भनक नहीं लगी। होते-होते एक दिन सांप ने मेंढक के राजा जलपाक को भी खा लिया और तालाब में रहने वाले सारे मेंढकों के वंश का नाश कर दिया।

कहानी से सीख : किसी भी शत्रु की बात का जल्दी से भरोसा नहीं करना चाहिए। इससे खुद की और अपने लोगों की हानि होना निश्चित है।

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