तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी नरेश राजा विश्वसेन के पुत्र थे। पिता ने सोलह वर्ष की आयु में ही उन्हें सत्ता सौंप दी थी, लेकिन कुछ ही वर्षों में सांसारिक सुखों से उन्हें विरक्ति होने लगी।
एक दिन उन्होंने अपने पिताश्री से कहा, ‘मैंने काफी समय तक राजा के रूप में सांसारिक सुख-सुविधाओं का उपभोग किया है, फिर भी सुख के प्रति तृष्णा का क्षय नहीं हो पाया।
जिस प्रकार ईंधन के उपयोग से अग्नि की ज्वाला का शमन नहीं होता, उसी प्रकार सुखोपभोग से तृष्णा की वृद्धि ही होती है।’ कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, ‘उपभोग के समय हमें जो सुख रुचिकर दिखाई देते हैं,
वे अत्यंत दुःख के रूप में सामने आते हैं। अतः अब मैं इन भ्रामक सुखों से ऊबकर अपना जीवन सार्थक करने के लिए वन जाना चाहता हूँ।
राजपद छोड़ने के बाद वन गमन करने से पूर्व पार्श्वनाथ ने उपदेश देते हुए कहा, ‘जीव इंद्रिय लोलुपता की संतुष्टि के लिए दुःख के सागर में गोते लगाता रहता है,
सत्कर्मों का त्यागकर दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त हो जाता है। लोभ, लालच, राग, द्वेष, चोरी, परस्त्रीगमन और अन्य कई प्रकार के पापों के मूल में मनुष्य की तृष्णा ही विद्यमान है।
सांसारिक सुख से विरत होने वाले परम संत पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में ही सभी शास्त्रों का सार ज्ञान ग्रहण कर लिया था ।
संत-मुनि के वेश में वे सामेदा की पहाड़ी पर साधनारत रहे। साधना पूरी होने के बाद उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लोगों को सत्य, सदाचार और अहिंसा का पालन करने के उपदेश देने में बिताया। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर के रूप में उन्होंने अमरत्व प्राप्त किया।
English Translation
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी नरेश राजा विश्वसेन के पुत्र थे। पिता ने सोलह वर्ष की आयु में ही उन्हें सत्ता सौंप दी थी, लेकिन कुछ ही वर्षों में सांसारिक सुखों से उन्हें विरक्ति होने लगी।
एक दिन उन्होंने अपने पिताश्री से कहा, ‘मैंने काफी समय तक राजा के रूप में सांसारिक सुख-सुविधाओं का उपभोग किया है, फिर भी सुख के प्रति तृष्णा का क्षय नहीं हो पाया।
जिस प्रकार ईंधन के उपयोग से अग्नि की ज्वाला का शमन नहीं होता, उसी प्रकार सुखोपभोग से तृष्णा की वृद्धि ही होती है।’ कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, ‘उपभोग के समय हमें जो सुख रुचिकर दिखाई देते हैं,
वे अत्यंत दुःख के रूप में सामने आते हैं। अतः अब मैं इन भ्रामक सुखों से ऊबकर अपना जीवन सार्थक करने के लिए वन जाना चाहता हूँ।
राजपद छोड़ने के बाद वन गमन करने से पूर्व पार्श्वनाथ ने उपदेश देते हुए कहा, ‘जीव इंद्रिय लोलुपता की संतुष्टि के लिए दुःख के सागर में गोते लगाता रहता है,
सत्कर्मों का त्यागकर दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त हो जाता है। लोभ, लालच, राग, द्वेष, चोरी, परस्त्रीगमन और अन्य कई प्रकार के पापों के मूल में मनुष्य की तृष्णा ही विद्यमान है।
सांसारिक सुख से विरत होने वाले परम संत पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में ही सभी शास्त्रों का सार ज्ञान ग्रहण कर लिया था ।
संत-मुनि के वेश में वे सामेदा की पहाड़ी पर साधनारत रहे। साधना पूरी होने के बाद उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लोगों को सत्य, सदाचार और अहिंसा का पालन करने के उपदेश देने में बिताया। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर के रूप में उन्होंने अमरत्व प्राप्त किया।