दार्शनिकों ने इंद्रियों के संयम को जीवन की सफलता का प्रमुख साधना कहा है। देवर्षि नारद उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘इंद्रियों का आवश्यक कर्मों को संपन्न करने में कम-से-कम उपयोग करना चाहिए।
मन पर नियंत्रण करके ही इंद्रिय-संयम संभव है। वाणी का जितना हो सके, कम उपयोग करने में ही कल्याण है।’ वाणी के संयम के अनेक प्रत्यक्ष लाभ देखने में आते हैं।
वाणी पर संयम करनेवाला किसी की निंदा के पाप , कटु वचन बोलकर शत्रु बनाने की आशंका, अभिमान जैसे दोषों से स्वतः बचा रहता है।
एक बार भगवान् बुद्ध मौन व्रत का पालन करते समय वृक्ष के नीचे एकाग्रचित्त बैठे हुए थे। उनसे द्वेष रखने वाला एक कुटिल व्यक्ति उधर गुजरा।
उसके मन में ईर्ष्या भाव पनपा-उसने वृक्ष के पास खड़े होकर बुद्ध के प्रति अपशब्दों का उच्चारण किया। बुद्ध मौन रहे। उन्हें शांत देखकर वह वापस लौट आया।
रास्ते में उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा -एक शांत बैठे साधु को गाली देने से क्या मिला? वह दूसरे दिन पुनःबुद्ध के पास पहुँचा। हाथ जोड़कर बोला, ‘मैं कल अपने द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा माँगता हूँ।’
बुद्ध ने कहा, ‘मैं कल जो था, आज मैं वैसा नहीं हूँ। तुम भी वैसे नहीं हो। क्योंकि जीवन प्रतिपल बीत रहा है। नदी के एक ही पानी में दोबारा नहीं उतरा जा सकता।
जब वापस उतरते हैं, वह पानी बहकर आगे चला जाता है। कल तुमने क्या कहा, मुझे नहीं मालूम और जब मैंने कुछ सुना ही नहीं, तो ये शब्द तुम्हारे पास वापस लौट गए। बुद्ध के शब्दों ने उसे सहज ही वाणी के संयम का महत्त्व बता दिया।
मनुष्य को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। वाणी किसी को राजा बना देती है, तो किसी को रंक। जिसकी जुबान सही नहीं होती है, वह पशुओं के समान होता है।
यह बात आचार्य सन्मति सागर के शिष्य दिगंबर जैन आचार्य सतार सागर महाराज ने समाजजनों को संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि अगर जीवन को सुखी बनाना है, तो संयमित वाणी बोलना जरूरी है।
ऐसा मत बोलो, जिससे किसी के मन को ठेस पहुंचे। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि वाणी के कारण ही महाभारत का युद्ध हुआ था। आज हम देख रहे हैं कि गलत बयानों से राष्ट्रों में विवाद हो रहे हैं।
इसी प्रकार समाज व घरों में जुबान के कारण ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, जो भुलाए नहीं भूली जातीं। ‘जुबान से किस प्रकार की वाणी बोली जाए’ विषय पर आचार्यश्री ने कहा कि आदमी के शब्दों में इतनी ताकत होती है, कि इसके दम पर दुनिया में अपना नाम कर लेता है।
संयमित बोलने पर उन्होंने कहा कि आदमी को धन-दौलत से नहीं शब्दों से कंजूस होना चाहिए। इसलिए जो भी बोलें बहुत ही सोच समझकर बोलें।
इसलिए वाणी संयम तप के समान है। धर्मग्रंथों में बताया गया है कि जो वचन किसी को उद्विग्न करनेवाला न हो तथा सत्य, प्रिय और हितकारी हो, वही सार्थक वाणी है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि शब्द ब्रह्म होता है। अतः एक-एक शब्द का उपयोग सोच-समझकर करना चाहिए।