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धर्म अनुसार प्रमुख दस पुण्य और दस पाप

कर्म के दो पहलू – ‘पाप’ और ‘पुण्य’ – जीवन की गति में हमारे क्रिया-कलापों का लेखा-जोखा बनते जाते हैं। यह विचारधारा सभी धार्मिक परंपराओं में एक सामान्य सिद्धांत के रूप में पाई जाती है। धर्म ने एक ऐसी संरचना के रूप में विकास किया है जो हमें नैतिकता के मार्ग पर चलने में सहायता प्रदान करती है, जहाँ हम अनुचित विचारों, शब्दों, और कर्मों से दूर रहने के लिए सजग प्रयत्न करते हैं।

धर्म अनुसार प्रमुख दस पुण्य और दस पाप। इन्हें जानकर और इन पर अमल करके कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है।

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।

“दस पुण्य कर्म”

1. धृति => हर परिस्थिति में धैर्य बनाए रखना।

2. क्षमा => बदला न लेना, क्रोध का कारण होने पर भी क्रोध न करना।

3. दम => उदंड न होना।

4. अस्तेय => दूसरे की वस्तु हथियाने का विचार न करना।

5. शौच => आहार की शुद्धता, शरीर की शुद्धता।

6. इंद्रियनिग्रह => इंद्रियों को विषयों (कामनाओं) में लिप्त न होने देना।

7. धी => किसी बात को भलीभांति समझना।

8. विद्या => धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान।

9. सत्य => झूठ और अहितकारी वचन न बोलना।

10. अक्रोध => क्षमा के बाद भी कोई अपमान करें तो भी क्रोध न करना।

“दस पाप कर्म”

1 => दूसरों का धन हड़पने की इच्छा।

2 => निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) करने का प्रयास।

3 => देह को ही सब कुछ मानना।

4 => कठोर वचन बोलना।

5 => झूठ बोलना।

6 => निंदा करना।

7 => बकवास करना (बिना कारण बोलते रहना)।

8 => चोरी करना।

9 => तन, मन, कर्म से किसी को दुख देना।

10 => पर-स्त्री या पुरुष से संबंध बनाना।

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