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भगवान का वरदान क्यों बना अभिशाप!!

मोहन स्वभाव का बड़ा भोला था, वह अपने आसपास जब भी गरीबी और लोगों की तकलीफ को देखता तो बहुत दुखी होता। उसने कहानियों में तो सुना था तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर वरदान देते हैं, क्यों ना मैं भगवान से कुछ वरदान प्राप्त करूं और दीन दुखियों की सेवा करूं।

ऐसा विचार कर मोहन पहाड़ों पर चला गया। जहां बेहद सघन वन थे, धूप कभी कभी जमीन को छुपाती थी। ऐसी स्थिति में वह एक कंदरा में बैठ तपस्या में लीन हो गया।

तपस्या करते हुए काफी समय व्यतीत हो गया। कठिन तपस्या को देख ईश्वर प्रकट हुए और उसे तपस्या से जागने को कहा।

मोहन काफी प्रसन्न था वह साक्षात अपने ईश्वर का दर्शन कर पा रहा था। यह उसके लिए सौभाग्य की बात है।

ईश्वर – मोहन मैं तुम्हारे तपस्या से प्रसन्न हूं, कहो मुझसे क्या आशा करते हो?

मोहन – प्रभु मुझे आपके दर्शन हो गए मेरा जीवन धन्य हो गया। अब मुझे किसी और चीज की आशा नहीं है।

ईश्वर – फिर भी तुम मुझसे कुछ मांगना चाहते हो तो मांगो, मैं तुम्हें अवश्य वरदान दूंगा।

मोहन – प्रभु मैं अपने आसपास लोगों की तकलीफ देखता हूं तो काफी दुखी होता हूं। कृपया उन्हें दूर करने का कोई उपाय बताइए।

ईश्वर ने एक पत्ते से भरा हुआ डाली मोहन को दिया और कहा यह पत्ते सदा हरे भरे रहेंगे और डाली से कभी कम नहीं होंगे। किसी भूखे और दरिद्र व्यक्ति को देखो तो यह पता निचोड़ कर उसके मुंह में एक बूंद डाल देना। वह बलवान हो जाएगा उसके दुख तकलीफ तत्काल दूर हो जाएंगी।

ऐसा कहते हुए ईश्वर अंतर्ध्यान हो गए।

अब मोहन जो अंततः मनुष्य ठहरा, उसके मन में नए-नए विचार उत्पन्न होने लगे। अब मैं गांव जाऊंगा और लोगों को यह सभी आश्चर्यजनक कार्य करके दिखाऊंगा तो मेरा नाम होगा। लोग मुझे गांव का सरपंच बना देंगे, इतना ही नहीं कुछ जिला का विधायक बना देंगे। ऐसी ऐसी अनेकों कल्पना उसके मन में चलने लगी।

जब इस कल्पना से मोहभंग हुआ तो वह सोचे लगा, कहीं मेरी जग हंसाई ना हो। ईश्वर ने जो वरदान दिया उसे एक बार आजमा कर देख तो लूं।  अब मोहन ऐसा साधन ढूंढने लगा जिस पर उस पत्ते के करिश्मा को देखा जा सके।

जंगल में चलते चलते उसे एक भूखा प्यासा दुर्बल जिसकी हड्डियां बाहर दिख रही थी, ऐसा शेर वहां बेहोशी की अवस्था में पड़ा था।

मोहन को उस पत्ते के करिश्मा को देखने का अवसर आ गया था।

झटपट पत्ते को निचोड़ा और एक बूंद शेर के मुंह में डाल दिया।

जैसे ही एक बूंद शेर के मुंह में गिरा वह बलवान होकर खड़ा हो गया और सामने मोहन को पाकर अपना भूख मिटाने की सोची। क्योंकि भूख की अवस्था से ही तो वह मूर्छित बेहोश पड़ा था। अब कुछ समय में मोहन की जीवन लीला समाप्त हो गई थी।

निष्कर्ष –

महत्वकांक्षी लोग क्षणिक स्वार्थ के लिए अपने विवेक खो देते हैं। वह यह भी नहीं सोच पाते कि उनका इस कार्य से अहित हो सकता है। ऐसा ही मोहन के साथ हुआ उसने शेर को जीवित करने से पूर्व कोई सावधानी नहीं बरती। बल्कि वह अपनी महत्वाकांक्षा के मद में अंधा हो चुका था उसे यथाशीघ्र खुद को प्रसिद्ध करना था। इस कारण उसके लिए भगवान का वरदान अभिशाप में परिवर्तित हो गया।

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khilji

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