बहुत समय पहले की बात है । एक विख्यात गुरुदेव का गुरुकुल हुआ करता था । उस गुरुकुल में बडे-बडे राजा-महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के पुत्र भी शिक्षा लेते थे ।
अनेक वर्षोंसे शिक्षा प्राप्त कर रहे कुछ शिष्यों की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी । अब वे सभी बडे उत्साह के साथ अपने अपने घर लौटने की तैयारी कर रहे थे । तभी गुरुदेवजी ने सभी को मैदान में एकत्रित होने की आज्ञा दी । सभी शिष्य मैदान में पहुंचे । गुरुदेवजी बोले, ‘‘प्रिय शिष्यों, आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिवस है । मैं चाहता हूं कि जाने से पूर्व आप सभी एक छोटीसी परीक्षा देने के लिए एक दौड में भाग लें । यह दौड करते समय आपको कहीं कूदना होगा, तो कहीं पानी में दौडना होगा । इस दौड के अंतिम पडाव में आपको एक अन्धेरी कन्दरा अर्थात अंधेरी जगह से भी निकलना पडेगा । तो क्या आप सब सिद्ध हैं ?’’
शिष्य एक स्वरमें बोले, ‘‘हां, हम सिद्ध है ।’’ तो दौड आरम्भ हुई ।
सभी शिष्य तीव्र गति से भागने लगे । वे सभी बाधाओं को पार करते हुए अन्तमें कन्दरा के पास पहुंचे । वहां बहुत अंधेरा था । शिष्य अन्दर गए तो उसमें स्थान-स्थान पर नुकीले पत्थर भी पडे थे । पत्थरों के चुभने से सभी को असहनीय पीडा हो रही थी ।
सभीने जैसे-तैसे दौड पूर्ण की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हो गए ।
ऋषिवरने सभी को देखकर प्रश्न किया, ‘‘पुत्रों ! मैं देख रहा हूं कि कुछ लोगों ने दौड बहुत शीघ्र पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया । भला ऐसा क्यों हुआ ?’’
एक शिष्य ने कहा, ‘‘गुरुजी, हम सभी लगभग साथ-साथ ही दौड रहे थे; परन्तु कन्दरा में पहुंचते ही अलग स्थिति आ गई । कोई दूसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था, तो कोई सम्भल-सम्भलकर आगे बढ रहा था । कुछ तो ऐसे भी थे जो पांव में चुभ रहे पत्थरों को उठा-उठाकर अपने कोश में अर्थात जेब में रख रहे थे । जिससे उनके पीछे आनेवाले लोगों को पीडा न सहनी पडे । इसलिए सबने अलग अलग समय में दौड पूरी की ।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘ठीक है ! जिन्होंने पत्थर उठाए हैं वे आगे आएं और मुझे पत्थर दिखाए ।’’
कुछ शिष्य सामने आए और अपने जेबसे पत्थर निकालने लगे । परन्तु शिष्य जिन्हें पत्थर समझ रहे थे, वस्तुतः वे बहुमूल्य हीरे थे । सभी आश्चर्य में पड गए और गुरुदेवजी की ओर देखने लगे ।
गुरुदेव बोले, ‘‘शिष्यों, मैंने ही इन्हे उस कन्दरा में डाला था । अन्यों का विचार करनेवाले शिष्यों को यह मेरा पुरस्कार है । यह दौड जीवन की भागदौड को दर्शाती है । जहां प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ पाने के लिए भागता रहता है । परन्तु अन्यों का विचार करने से जीवन समृद्ध होता है । स्वयं में व्यापकता निर्माण होती है ।
अन्यों का विचार करना यह प्रेमभाव बढाने के लिए अत्यावश्यक गुण है । अर्थात अन्यों का विचार करना कभी न भूलें ।