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नीच का न्याय !!

एक जंगल के जिस वृक्ष पर मैं रहता था, उसके नीचे के तने में एक खोखल में किंजल नाम का एक चटक (तीतर) भी रहता था। एक दिन कपिजल अपने साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई-नई कोपलें खाने चला गया।  

बहुत रात बीतने पर भी जब वह वापस न लौटा तो मुझे चिंता होने लगी। इसी बीच शीघ्रगति नाम का एक खरगोश वहां आया और कपिंजल के खाली स्थान को देखकर उसमें घुस गया। दूसरे दिन कपिंजल अचानक वापस लौट आया।  

अपने खोखल में आने पर उसने देखा कि वहां एक खरगोश बैठा हुआ है उसने खरगोश से अपनी जगह खाली करने को कहा। खरगोश भी तीखे स्वभाव का या, दोला’यह घर अद तेरा नहीं हैं।  

वापी, कृप, तालाब और वृक्षों पर बने घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा कर ले, वह घर उसका हो जाता है। घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिए होता है। पक्षियों के लिए गृह-स्वामित्व का कोई विधान नहीं है।’  

उनकी बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी उसने सोचा-मैं ही। पंच बन जाऊं तो कितना अच्छा है, दोनों को मारकर खाने का अवसर मिल जाएगा” यही सोच, हाय में माला लेकर,  

सूर्य की ओर मुख करके वह नदी किनारे कुशासन बिछाकर, आंख मूंदकर बैठ गई और धर्म का उपदेश करने लगी। उसके उपदेशों को सुनकर खरगोश ने कहा-‘यह देखो। कोई तपस्वी बैठा है।  

क्यों न इसी तीतर बिल्ली को देखकर डर गया, दूर से ही बोला—’मुनिवर ! आप हमारे झगड़े का निबटारा कर दें। जिसका

पक्ष धर्मविरुद्ध हो, उसे तुम खा लेना। यह सुनकर बिल्ली ने आंखें खोली और कहा- ‘राम-राम। ऐसा न कहो।  

मैंने हिंसा का मार्ग छोड़ दिया है। अतः मैं हिंसा नहीं करूंगी। हां, तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है। किंतु, मैं वृद्ध हूं, दूर से तुम्हारी बातें नहीं सुन सकती, पास आकर अपनी बात कहो।’  

बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया दोनों ने उसे पंच मान लिया और उसके निकट जा पहुंचे। उचित अवसर पाकर बिल्ली ने दोनों को ही दबोच लिया और मारकर खा गई।  

इसी को पंच बनाकर पूछ लें ?’ कौए की बात सुनकर सभी पक्षी उल्लू को राजमुकुट पहनाए बिना वहां से चले गए। केवल अभिषेक की प्रतीक्षा करता हुआ उल्लू, उसकी मित्र कृकालिका और कौआ वहीं रह गए।  

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