देवि ! अब नौंवे अध्यायका माहात्म्य सुनो ! उसके सुननेसे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी । [ लक्ष्मीजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार नौंवे अध्यायका माहात्म्य बतलाया था । ] दक्षिणमें आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है । वहाँ भावशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था , जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था । वह मांस खाता , मदिरा पीता , श्रेष्ठ पुरुषोंका धन चुराता , परायी स्त्रीसे व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता था । वह बड़े भयानक स्वभावका था और मनमें बड़े – बड़े हौसले रखता था । एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था । उसमें भावशर्माने भरपेट ताड़ी पी – खूब गलेतक उसे चढ़ाया ; अतः अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ ।
उसकी घनी और ठंडी छायाका आश्रय लेकर ब्रह्मराक्षस – भावको प्राप्त हुए कोई पति – पत्नी वहाँ रहा करते थे । उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है । एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था , जो वेद – वेदाङ्गके तत्त्वोंका ज्ञाता , सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था । उसकी स्त्रीका नाम कुमति था । वह बड़े खोटे विचारकी थी । वह ब्राह्मण विद्वान् होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्रीके साथ प्रतिदिन भैंस , कालपुरुष और घोड़े आदि बड़े दानोंको ग्रहण किया करता था ; परंतु दूसरे ब्राह्मणोंको दानमें मिली कौड़ी भी नहीं देता था । वे ही दोनों पति – पत्नी कालवश मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए ।
वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़वृक्षके पास आये और उसके मूल भागमें विश्राम करने लगे । इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा – ‘ नाथ ! हमलोगोंका यह
महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षस – योनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ? ‘ तब उस ब्राह्मणने कहा – ‘ ब्रह्मविद्याके उपदेश , अध्यात्म – तत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार संकटसे छुटकारा मिल सकता है ।
यह सुनकर पत्नीने पूछा –’किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ‘
( पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन – सा है ? ) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई , उसको सुनो । उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था । उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया । तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्ध – चित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया । तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति – पत्नी भी मुक्त हो गये ।
उनके मुखसे दैवात् ही नौंवे अध्याय का आधा श्लोक निकल पड़ा था । तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति – पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये । वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था ।
उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी काशीपुरीमें चला गया । वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने भारी तपस्या आरम्भ की । उसी समय क्षीरसागरकी कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा – ‘ नाथ ! आप सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ? ‘
श्रीभगवान् बोले –
देवि ! काशीपुरीमें भागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है । वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें
अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है । मैं उसकी तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ । बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था । प्रिये ! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हूँ ।
पार्वतीजीने पूछा-
भगवन् ! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे , उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन – सा फल प्राप्त किया ?
श्रीमहादेवजी बोले –
देवि ! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक सुख ( मोक्ष ) -को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी , जो नरक – यातनामें पड़े थे , उसीके शुद्धकर्मसे भगवद्धामको प्राप्त हुए । पार्वती ! यह आठवें अध्यायका माहात्म्य थोड़ेमें ही तुम्हें बताया है । इसपर सदा विचार करते रहना चाहिये ।