सुन्दरि ! अब तुम दशम अध्यायके माहात्म्यकी परमपावन कथा सुनो , जो स्वर्गरूपी दुर्गमें जानेके लिये सुन्दर सोपान और प्रभावकी चरम सीमा है । काशीपुरीमें धीरबुद्धि नामसे विख्यात एक ब्राह्मण था , जो मुझमें प्रिय नन्दीके समान भक्ति रखता था । वह पावन कीर्तिके अर्जनमें तत्पर रहनेवाला , शान्तचित्त और हिंसा , कठोरता एवं दुःसाहससे दूर रहनेवाला था । जितेन्द्रिय होनेके कारण वह निवृत्ति मार्गमें ही स्थित रहता था । उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था । वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्पर्यका ज्ञाता था । उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्न रहता था । वह मनको अन्तरात्मामें लगाकर सदा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया करता था ; अतः जब वह चलने लगता , तब मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़ – दौड़कर उसे हाथका सहारा देता रहता था ।
यह देख मेरे पार्षद भृङ्गिरिटिने पूछा – भगवन् ! इस प्रकार भला , किसने आपका दर्शन किया होगा । इस महात्माने कौन – सा तप , होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद – पदपर इसे हाथका सहारा देते चलते हैं ?
भृङ्गिरिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया । एक समयकी बात है , कैलासपर्वतके पार्श्वभागमें पुन्नाग वनके भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणोंसे धुली हुई भूमिमें एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था । मेरे बैठनेके क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी , वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ नीचे – ऊपर होकर आपसमें टकराने लगीं , कितनी ही टहनियाँ टूट – टूटकर बिखर गयीं । पर्वतकी अविचल छाया भी हिलने लगी । इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ , जिससे पर्वतकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं । तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा , जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी । वह कज्जलकी राशि , अन्धकारके वह समूह अथवा पंख कटे काले पर्वत – सा जान पड़ता था । पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणोंमें रखकर स्पष्ट वाणीमें स्तुति करनी आरम्भ की ।
पक्षी बोला –
देव ! आपकी जय हो । आप चिदानन्दमयी सुधाके सागर तथा जगत्के पालक हैं । सदा सद्भावनासे युक्त एवं अनासक्तिकी लहरोंसे उल्लसित हैं । आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है । आपकी जय हो । अद्वैतवासनासे परिपूर्ण बुद्धिके द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं । आप जितेन्द्रिय भक्तोंके अधीन रहते हैं तथा ध्यानमें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता है । आप अविद्यामय उपाधिसे रहित , नित्यमुक्त , निराकार , निरामय , असीम , अहंकारशून्य , आवरणरहित और निर्गुण हैं । आपके चरणकमल शरणागत भक्तोंकी रक्षा करने में प्रवीण हैं ।
अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्पकी विषज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया है । आपकी जय हो । आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं । आपको बार – बार नमस्कार है । चैतन्यके स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है । मैं श्रेष्ठ योगियोंद्वारा चुम्बित आपके उन चरण – कमलोंकी वन्दना करता हूँ , जो अपार भव – पापके समुद्रसे पार उतारनेमें अद्भुत शक्तिशाली हैं । महादेव ! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेकी धृष्टता नहीं कर सकते । सहस्त्र मुखोंवाले नागराज शेषमें भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें । फिर मेरे – जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है ।
उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा
विहङ्गम ! तुम कौन हो और कहाँसे आये हो ? तुम्हारी आकृति तो हंस – जैसी है , मगर रंग कौएका मिला है । तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो , उसे बताओ ।
पक्षी बोला –
देवेश ! मुझे ब्रह्माजीका हंस जानिये । धूर्जटे ! जिस कर्मसे मेरे शरीरमें इस समय कालिमा आ गयी है , उसे सुनिये । प्रभो ! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं [ अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है ] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ । सौराष्ट्र ( सूरत ) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है , जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं । उसीमेंसे बालचन्द्रमाके टुकड़े – जैसे श्वेत मृणालोंके ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ रहा था । उड़ते – उड़ते सहसा वहाँसे पृथ्वीपर गिर पड़ा । जब होशमें आया और अपने गिरनेका कोई कारण न देख सका तो मन – ही – मन सोचने लगा – ‘ अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा ? आज मेरा पतन कैसे हो गया ? ‘ पके हुए कपूरके समान मेरे श्वेत शरीरमें यह कालिमा कैसे आ गयी ?
इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरेके कमलोंमेंसे मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी – ‘ हंस ! उठो , मैं तुम्हारे गिरने और काले होनेका कारण बताती हूँ । ‘ तब मैं उठकर सरोवरके बीच में गया और वहाँ पाँच कमलोंसे युक्त एक सुन्दर कमलिनीको देखा । उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतनका सारा कारण पूछा ।
कमलिनी बोली –
कलहंस ! तुम आकाशमार्गसे मुझे लाँघकर गये हो , उसी पातकके परिणामवश तुम्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा है तथा उसीके कारण तुम्हारे शरीरमें कालिमा दिखायी देती है । तुम्हें गिरा देख मेरे हृदयमें दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमलके द्वारा बोलने लगी हूँ , उस समय मेरे मुखसे निकली हुई सुगन्धको सूंघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये हैं । पक्षिराज ! जिस कारण मुझमें इतना वैभव – ऐसा प्रभाव आया है , उसे बतलाती हूँ ; सुनो । इस जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी ।
उस समय मेरा नाम सरोजवदना था । मैं गुरुजनोंकी सेवा करती सदा एकमात्र पातिव्रतके पालनमें तत्पर रहती थी । एक दिनकी बात है , मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी । इससे पतिसेवामें कुछ विलम्ब हो गया । इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया ‘ पापिनी ! तू मैना हो जा । ‘ मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई , तथापि पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय मिला । किसी मुनिकन्याने मेरा पालन – पोषण किया । मैं जिनके घरमें थी , वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती थी । विहङ्गम ! काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई । मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्माकी प्यारी सखी हो गयी ।
एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी । उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की , त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके । उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया । उनके भयसे मैंने स्वयं ही एक कमलिनीका रूप धारण कर लिया । मेरे दोनों पैर दो कमल हुए । दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अङ्गोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ । इस प्रकार मैं पाँच कमलोंसे युक्त हुई । मुनिवर दुर्वासाने मुझे देखा । उनके नेत्र क्रोधाग्निसे जल रहे थे । वे बोले – ‘ पापिनी ! तू इसी रूपमें सौ वर्षोंतक पड़ी रह । ‘ यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये ।
कमलिनी होनेपर भी विभूतियोगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है । मुझे लाँघनेमात्रके अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो । पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है , क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये । मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्यायको तुम भी सुन लो । उसके श्रवणमात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओगे ।
यों कहकर पद्मिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी । उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है ।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया । यह एक अद्भुत – सी घटना हुई । वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है । जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है । दसवें अध्यायके अर्थ – चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शङ्ख – चक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है । इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है , तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो , मुक्त हो जाता है । तथा पूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए दसवें अध्यायके माहात्म्यसे इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है । अत : जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ । भृङ्गिरिटे ! यह सब दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है ।