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देवी लक्ष्मी कहां विराजमान रहती है

एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा, ‘‘पितामह ! क्या करने से मनुष्य के दुःखों का नाश होता है ? कोई मनुष्य दुःखी होनेवाला है अथवा सुखी होनेवाला है, यह कैसे समझ सकते हैं ? किसका भविष्य उज्ज्वल होगा और किसका पतन होगा यह कैसे पता चल सकता है ? पितामह भिष्म ने कहां, ‘‘पुत्र इस विषय में एक प्राचीन कथा तुम्हे सुनाता हूं ।

एक बार इन्द्रदेव और वरुणदेव सूर्य की पहली किरण निकलने से पहले ही एक नदी के तट पर पहुंचे और उन्होंने देखा की देवर्षि नारद भी वहां आए हैं । देवर्षि नारदजी ने नदी में स्नान किया और मन ही मन में जप करते-करते सूर्य नारायण को अर्घ्य दिया । देवराज इंद्र ने भी ऐसा ही किया । इतने में सूर्य नारायण की कोमल किरणें उभरने लगी और एक कमल पर दैदीप्यमान प्रकाश छा गया । इंद्र और नारदजी ने उस प्रकाशपुंज की ओर गौर से देखा तो उसमे मां लक्ष्मीजी प्रकट हुई थीं । दोनों ने मां लक्ष्मी को अभिवादन किया । देवी लक्ष्मी से पूछा, ‘‘मां ! समुद्रमंथन के बाद आप प्रकट हुई थी। लोग आपको पूजते है । हे मातेश्वरी ! आप ही बताइए कि आप किस पर प्रसन्न होती हैं ? किसके घर में आप स्थिर रहती हैं? और किसके घर से आप विदा हो जाती है ? आपकी संपदा किसे मोहित करके संसार में भटकाती है ? और किसे असली संपदा भगवान नारायण से मिलाती है ?’’

देवी लक्ष्मीजी ने कहा, ‘‘देवर्षि नारद और देवेन्द्र ! आप दोनों ने लोगों की भलाई के लिए, मानव-समाज के हित के लिए प्रश्न किया है । इसलिए सुनो । पहले मैं उनके पास रहती थी, जो पुरुषार्थी थे, सत्य बोलते थे, वचन के पक्के थे अर्थात बोलकर मुकरते नहीं थे । कर्तव्यपालन में दृढ थे । अतिथि का सत्कार करते थे । निर्दोषों को सताते नहीं थे । सज्जनों का आदर करते थे और दुष्टों से लोहा लेते थे । जबसे उनके सद्गुण दुर्गुणों में बदलने लगे, तबसे मैं आपकेपास देवलोक में आने लगी ।

समझदार लोग उद्योग से मुझे प्राप्त करते हैं। निर्धनों को धन दान कर मेरा अर्थात लक्ष्मी का विस्तार करते हैं। संयम से मुझे स्थिर बनाते हैं और अच्छे काम के लिए मेरा उपयोग कर ईश्वरप्राप्ती के लिए प्रयत्न करते हैं। जो सूर्योदय से पहले स्नान करते है, सत्य बोलते है, वचन में दृढ रहते है, कर्तव्यपालन करते है, बिना कारण किसी को दंड नहीं देते, जहां उद्योग, साहस, धैर्य और बुद्धि का विकास होता है और ईश्वर की प्राप्ती के लिए प्रयास करते है, वहां मैं निवास करती हूं । जो लोग सरल स्वभाव के होते है, किसी को हानी नहीं पहुंचाते, दृढ भक्ति करते है, मृदुभाषी होते है, नम्र होते है, जिनमें विवेक होता है, तत्परता यह सद्गुण जिस घर के व्यक्तियों में है, वहां मैं निवास करती हूं ।

जो सुबह झाडू-बुहारी करके घर को स्वच्छ रखते है, ईश्वर को अच्छा लगे ऐसा आचरण करते है, तथा जिनकी प्रत्येक कृति से अन्यों को आनंद मिलता हो, ऐसे लोगों के घर ही लक्ष्मीदेवी को रहना अच्छा लगता है ।

जो लक्ष्मी को स्थिर रखना चाहते है, उन्हे रात्रि को घर में झाड़ू-बुहारी नहीं करनी चाहिए । हे देवेन्द्र ! जिनमें अहंकार नहीं है, उन पर मैं सदा प्रसन्न रहती हूं । उनके जीवन में भाग्यलक्ष्मी के रूप में विराजती हूं ।’’ स्वयं देवी लक्ष्मी से यह बातें ज्ञात होने पर देवर्षि इंद्रदेव ने देवी महालक्ष्मी के चरणों मे कृतज्ञता व्यक्त की ।

लक्ष्मीपूजन के दिन ही भगवान श्री विष्णुजीने देवी लक्ष्मीजी सहित सर्व देवताओं को राजा बली के बंदीगृह से मुक्त किया था । आज पूजन के समय एक चौकीपर अक्षतों का स्वस्तिक बनाते है । उसपर लक्ष्मीजी एवं कुबेर की प्रतिमा रखते है । लक्ष्मीजी को धनिया, गुड, खील-बताशे का भोग लगाते है । धनिया धनवाचक है तथा खील समृद्धि का प्रतीक है । ‘उस रात लक्ष्मीजी सर्वत्र संचार कर स्वयं के निवास योग्य स्थान खोजती है’, ऐसा पुराणों में बताया गया है । उन्हें कहां रहना अच्छा लगता है ?, इसकी कथा अभी,हमने सुनी ही है । ‘हमारे घर लक्ष्मीजी वास करे’, ऐसा आपको लगता है ना ? तो आप स्वयं में सद्गुण लाने का निश्चय करें, यही खरा लक्ष्मीपूजन है ।

आज के दिन नई झाडू लेकर मध्यरात्री में घर बुहारा जाता है । कचरा अर्थात अलक्ष्मी ! केवल आज की ही रात कचरा बाहर फेंकते है अर्थात अलक्ष्मी को बाहर निकालते हैं। अन्य किसी भी समय हम रात्री में कचरा बाहर नहीं फेंकते है ।

तो हम भी हमारेस्वभावदोषों का नाश कर सत्वगुणी बनने का प्रयास करेंगे, तो हम पर भी माता लक्ष्मी की कृपा रहेगी । 

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