भारतीय संस्कृति में शुद्धता-पवित्रता को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है। कहा भी गया है, ‘अद्विशात्राणि शुध्यति मनः सत्येन शुध्यति विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बूद्धिज्ञनित शुध्यति ।’
यानी जल से स्नान करने से शरीर, सत्याचरण से मन, विद्या और तप से आत्मा तथा ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है। शास्त्रकार कहते हैं, ‘स्व मनो विशुद्धिम्तीर्थं अरथत् अपना विशुद्ध मन सर्वोपरि तीर्थ है।
विभिन्न संप्रदायों के नीति वचनों में कहा गया है कि मानव के उत्थान पतन में मन की अहम भूमिका होती है। अतः मन को किसी भी प्रकार के लोभ, लालच, राग-द्वेष, ईर्ष्या तथा भोग की असीमित इच्छाओं की कलुषता से बचाए रखने का प्रयास करते रहना चाहिए ।
सदैव सत्साहित्य का अध्ययन, सद्विचारों के चिंतन से मन को पवित्र बनाया जा सकता है। जिसका मन पवित्रता का अभ्यासी बन जाता है, उसकी वाणी और कर्म में एकरूपता होती है।
कहा भी गया है, ‘मनयेकं वचस्येकं कर्मणयेकं महात्मनाम’ यानी जो मन, वाणी और कर्म में एकरूप होते हैं, वही महात्मा हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि मन ऐसा सारथी है, जो इंद्रियरूपी अश्वों की नकेल पकड़कर प्राण रूपी रथ का संचालन करता है।
यदि मन पवित्र भावों से ओत-प्रोत हो, तो वह इंद्रियों को सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त करेगा और यदि वह दूषित विचारों के प्रभाव में है, तो इंद्रियों को कुमार्ग की ओर ले जाएगा। ‘मन के हारे हार है-मन के जीते जीत’। पवित्र मन वाला, निश्छल हृदय व्यक्ति ही राष्ट्र व समाज का कल्याण कर सकता है।