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“सच्ची पूजा का फल”

किसी नगर में एक बुढ़िया रहती थी। वह ग्वालिन थी उसके चार पुत्र और एक पुत्री थी। एक समय नगर में हैजा की बीमारी फैली। एक-एक करके बुढ़िया के पति और चारों पुत्र चल बसे। अब एक मात्र लड़की रह गयी। पति और पुत्रों के न रहने पर बुढ़िया की पीड़ा असह्य हो गयी।
बुढ़िया के पास अधिक जगह-जमीन न थी। एक आम का बगीचा था। उसके पति ने एक चबूतरा बना कर महावीर जी की ध्वजा खड़ी कर शिवलिंग की स्थापना की थी। बुढ़िया के पति का एक नियम था कि वह प्रतिदिन स्नान करके एक लोटा जल शिवजी पर चढ़ाता, धूप देता और प्रसाद के रूप में थोड़ा बतासा चढ़ाकर छोटे-छोटे बच्चों को बाँट देता था।
पति के मर जाने के बाद बुढ़िया ने इस काम को अपने हाथ में लिया। वह भी नियम पूर्वक शिवजी की पूजा करती थी। बतासा या मिठाई न होने पर वह धूप देकर महादेव जी को गुड़ का ही भोग अवश्य लगाती थी। आम के दिनों में आम बेचकर गुजर करती थी। अपनी लड़की की सहायता से कुछ गोबर इकट्ठा कर गोइठा बनाती। इसे बेचकर माँ-बेटी गुजारा करती थीं।
जब उसकी लड़की विवाह करने योग्य हुई, तब बुढ़िया की चिन्ता बढ़ गयी। वह सोचने लगी कि पैसे हैं नहीं, इसका विवाह कैसे होगा। साथ ही बुढ़िया के मन में यह भी चाह थी कि उसकी लड़की किसी अच्छे घर में जाय, जिससे वह सुखी रहे। प्रतिदिन शिवजी की पूजा कर वह मन ही मन प्रार्थना करती- “हे भोलेनाथ ! मेरी बिटिया का विवाह एक सम्पन्न घर में करा दो, बिटिया को गोबर न इकट्ठा करना पड़े।”
एक दिन जब बुढ़िया शिव-पूजा करने के लिए हाथ में एक लोटा जल तथा कुछ मिठाई लेकर आयी, तब एक नौजवान पुरुष घोड़े से उसके सामने उतरा और एक वृक्ष के सहारे बैठ गया। वह आदमी सूर्य की चिलचिलाती हुई किरणों से अत्यन्त तप्त हो रहा था। प्यास से उसका गला सूख गया था। वह बोलने में असमर्थ था। इशारे से उसने बुढ़िया से जल माँगा।
बुढ़िया ने शिवजी की पूजा का जल और मिठाई उस नौजवान को दे दी। उस आदमी ने मिठाई खाकर जलपान किया। थोड़ी देर के बाद उसको बोलने की शक्ति हुई तो उस नौजवान ने बुढ़िया से पूछा- “हे माता ! तुम इस दोपहर में मिठाई और जल लेकर क्यों आयी थी ?” उसने कहा, “शिवजी की पूजा करने का मेरा प्रतिदिन का नियम है इसलिए आयी थी।” नौजवान ने कहा, “तब तुमने इन वस्तुओं को मुझे क्यों दे दिया ?” बुढ़िया ने कहा- “बेटा ! प्यासे को पानी और भूखे को अन्न देना ही पूजा है। पूजा के लिए जल और प्रसाद फिर ले आऊँगी।” उस नौजवान ने बुढ़िया से पूछा, “तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं ?”
उसने कहा- “बेटा ! मैं क्या कहूँ ? आज से कुछ वर्ष पहले हैजे से मेरे चार पुत्र और पतिदेव की मृत्यु हो गयी।” मेरी एक बारह वर्ष की लड़की बची है। उसका विवाह करना है। रुपये पास में हैं नहीं। कैसे करूँ ? यही शिवजी से मनाती हूँ, ‘हे भोले बाबा ! मेरी बिटिया की शादी अच्छे घर में करा दो जिससे वह सुखी रहे।’ नौजवान ने कहा- “माता ! तुम कल सूर्यास्त के समय इसी स्थान पर आना। भूलना नहीं, मैं अवश्य आऊँगा।” बुढ़िया के बहुत पूछने पर भी उसने अपना नाम या ग्राम नहीं बतलाया और वह घोड़े पर सवार होकर चला गया।
दूसरे दिन बुढ़िया सूर्यास्त के समय आयी। वह शिवजी के चबूतरे पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। अन्धेरा होने लगा। अकेली बुढ़िया बगीचे में डरने लगी। वह मन ही मन सोचने लगी- “शायद वह भूल गया होगा या झूठे ही कह दिया होगा ! अब मैं घर चलूँ।”
इतने में घोड़े के पैरों की आवाज सुनायी पड़ी और वह नवजवान पुरुष आ गया। बुढ़िया को प्रणाम करके ५०००) के नोट उसके हाथ में देते हुए कहा- “जाओ तुम्हारी बिटिया मेरी बहन है। उसका विवाह अच्छे घर में ठीक करो । विवाह के दिन मैं फिर आऊँगा। आटा, घी, चीनी, लकड़ी, कपड़े आदि वस्तुएँ विवाह के दिन से पहले तुम्हारे घर आ जायेंगी।”
बुढ़िया ने कहा- “बेटा विवाह का दिन तुमको कैसे जनाऊँगी ? तुम अपना नाम और ग्राम तो बतलाते नहीं हो।” उसने कहा- “इसकी चिन्ता मत करो। मैं मालूम कर लूँगा। देखो उसका कन्यादान मैं करूँगा। सब काम ठीक हो जाने पर कन्यादान करने के समय मैं आऊँगा। कन्यादान करके चला जाऊँगा।
घर आकर बुढ़िया ने अपने भाई से सब बातें कह दीं। पुत्र और पति के मरने के बाद वही उनकी देखभाल करता था। उसने तुरन्त बी० ए० पास लड़के को ४०००) तिलक देकर ठीक किया। विवाह का दिन निश्चित हो गया। १०००) में बुढ़िया के घर की छावनी सुधार दी गयी।
विवाह के ठीक एक दिन पहले सायंकाल ५ बैलगाड़ियाँ आटा, चावल, दाल, कपड़ा, घी, चीनी, नमक, मसाला, जलावन आदि सामग्री से भरी हुई आयीं। बुढ़िया का घर पूछकर गाड़ीवानों ने उसके घर पर चीजें रख दीं और उसी समय वे चल दिये। किसने भेजा, कहाँ की गाड़ियाँ हैं- उन लोगों ने कुछ नहीं बतलाया।
विवाह के दिन कन्यादान के ठीक १० मिनट पहले घोड़े पर चढ़ा हुआ वह व्यक्ति आया और घर के भीतर चला गया। पुरोहित जी से लेकर उसने कुश की अँगूठी पहन ली और लड़की के दाहिने हाथ के अँगूठे को पकड़ कर संकल्प किया। उसने वर के हाथ में लड़की का अँगूठा देकर पाँच गिन्नी दक्षिणा दी। अन्त में १०५) रुपये पुरोहित को देकर वह चलने को तैयार हुआ। बुढ़िया के बहुत कहने पर एक मिठाई खाकर उसने जलपान किया। घोड़े पर चढ़कर वह कहाँ चला गया किसी को मालूम नहीं हो सका।
शिक्षा

  1. हमें प्राण बचानेवाले के प्रति सदा कृतज्ञ रहना चाहिये और उसकी पूरी भलाई करनी चाहिये।
  2. उपकार करने वाले को अपना नाम गुप्त रखना चाहिये, क्योंकि कहने से उसका फल घट जाता है।
  3. सच्चे मन से की गई पूजा का फल अवश्य मिलता है।

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