दोस्तो एक बार एक शिष्य को उनके गुरु से यह जानना चाहता था की हमारे जीवन की सीमाएं क्या है? इसीलिए वो अपने गुरु से पूछता है की गुरु जी क्या आप मुझे बता सकते हैं की हमारे जीवन की सीमाएं क्या है? तो उसके गुरु जी उससे कहते है की यह जानने से पहले में तुम्हे एक व्यावहारिक उदाहरण देना चाहता हूं, इसलिए तुम दंड लगाने की स्थिति में आ जाओ।
तुम जितने दंड लगा सको लगाओ , जब तक की यह न लगने लगे की अब बिल्कुल भी दंड नहीं लगा पाओगे तब तक मत रुकना। गुरु की यह बात सुनते ही शिष्य अपने दंड लगाने की स्थिति में आ जाता है और दंड लगाने की शुरुआत करता है।
शिष्य अपने व्यायाम के साथ संघर्ष करने लगा और उसने जैसे तैसे करके 25 से 30 दंड लगा लिए। और जब तक उसका शरीर और उसके बाहे जवाब नही दे गई तब तक वो लगातार दंड लगता रहा। उसके बाद उसने दंड लगाना छोड़ दिए। उसने ने कहा की अब और ज्यादा नहीं गुरु जी और यह मेरी जान निकाल रही है।
तब उसके गुरु जी उसको कहते है कि क्या तब तुम और ज्यादा दंड नहीं लगा सकते ? तो शिष्य कहता है की नही लगा सकता हूं। तो उसके गुरु उससे कहते हैं की दस बार दंड और लगाओ और फिर तुम आराम कर सकते हो?
लेकिन अपने गुरु की बात को मानते हुए शिष्य और 1,2,5 और अंत में 10 दंड लगाकर पूर्णतया थककर फर्श पर लेट गया। उसके बाद शिष्य ने अपने गुरु से कहा की कोई ऐसे अनुभव से और क्या सिख सकता है? तो उसके गुरु ने उसको कहा कि लोग सर्वाधिक विकास तभी करते हैं, जब वे अज्ञात क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद शिष्य अपने गुरु से पूछता है की लेकिन इसका संबंध मुझसे इतने अधिक दंड लगवाने से क्या था? तो उसके गुरु उससे कहते हैं की तुमने 30 दंड लगाने के बाद मुझसे कहा की अब तुम और नही लगा सकते हैं?
और तुमने मुझे बताया की यह तुम्हारी अंतिम सीमा है, पर इसके बावजूद भी मैने तुमसे 10 दंड और लगाने के लिए कहा और तुमने मेरे कहने पर 10 दंड लगा भी दिए। इससे यह साबित होता है की तुम्हारे अंदर और अधिक दंड लगाने की क्षमता थी और जब तुम्हे उसकी आवश्यकता हुई, तब तुम्हे वह प्राप्त हुई।
और उन्होंने यह भी कहा की तुम्हारे जीवन की सीमाएं वही है, जो तुम स्वय निर्धारित कर रखी है। जब तुम अपने आराम के दायरे से बाहर निकलने का साहस करते हो तो तुम अज्ञात के क्षेत्र को खोजने लगते हो, और तब तुम अपने वास्तविक मानवीय शक्ति स्त्रोत को आजाद कर देते हो।
मानव जीवन की परिपूर्णता है।
जीवन को जब भी जियो पूरे आनंद और उल्लास के साथ जियो ! जीवन को जब उसकी समग्रता और पूर्णता में जिया जाता है तो उसका आनंद कुछ अलग ही होता है।
जब किसी त्यौंहार पर घर में रंगोली सजाई जाती है तो हमें अच्छे से पता होता है कि रंगोली दूसरे ही दिन मिटने वाली है। दूसरे दिन तो दूर की बात है, दूसरे ही क्षण मिटने वाली है। एक हल्की सी हवा चली और रंगोली कब उड़ गई पता भी नहीं चला। थोड़ा सा पानी क्या गिरा कि रंगोली कब बह गई कुछ पता ही नहीं चला।
जीवन भी तो कुछ रंगोली जैसा ही है। हमें पता है कि पद, प्रतिष्ठा, वैभव, सगे संबंधी, बचपन, यौवन और यहाँ तक कि जीवन व और जो कुछ भी हमारे पास है, एक दिन कुछ नहीं रहेगा मगर फिर भी उसे रंगोली की तरह जितना हो सके सजाने, संवारने और खूबसूरत बनाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
कहने का अभिप्राय केवल इतना कि जितनी भी देर रहो ऊर्जावान बने रहो! जितने भी दिन रहो क्रियावान बने रहो! जितनी भी घड़ी रहो उल्लासित बने रहो! जितने भी पल रहो उत्साहित और आनंदित बने रहो! जितने भी क्षण रहो खिले-खिले और मुस्कुराते रहो! यही तो इस मानव जीवन की परिपूर्णता है।