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क्रोध अकेला नहीं आता

सभी धर्मों में क्रोध को सर्वनाश का प्रमुख कारण बताया गया है। महाभारत में कहा गया है कि निद्रां तंद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रिता। इसलिए आलस्य एवं क्रोध आदि दुर्गुणों को छोड़ने में ही कल्याण है। क्रोध के कारण मानव आवेश में आकर विवेक खो बैठता है तथा उसका दुष्परिणाम कई बार अत्यंत घातक होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा …

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सत्कर्म करते रहो

सत्कर्म करते रहो

विधि का नियम है कि मानव को जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत कुछ-न- कुछ कर्म करते रहना पड़ता है। इसलिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य को हर क्षण सत्कर्म में ही व्यतीत करना चाहिए। सत्कर्म करते रहने में ही जीवन की सार्थकता है। आदि शंकराचार्य कहते हैं, जो पुरुषार्थहीन है, वह वास्तव में जीते-जी मरा हुआ है। गीता में …

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दीप जलाकर देखो

तीर्थंकर महावीर से एक दिन एक श्रद्धालु ने पूछा, ‘भगवन्, मैं सभी व्रतों का यथासंभव पालन करता हूँ। अर्जित धन का एक अंश दान करता हूँ, उपवास भी करता हूँ, किंतु कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन व्यर्थ जा रहा है। मन की शांति के लिए क्या करना चाहिए?’ यह सुनकर महावीर ने उसी से प्रश्न किया, ‘क्या केवल धन …

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मानवता का गुण

ऋग्वेद का एक मंत्र है- मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो। वैदिक विद्वान् वेदमूर्ति पं. सातवलेकर ने एक सभा में जब मंत्र दोहराया-मनुर्भव, तो एक सज्जन ने पूछा, ‘क्या सभा में उपस्थित लोग मनुष्य नहीं हैं?’ पंडित सातवलेकरजी ने कहा, ‘भाई! हर जीव के कुछ लक्षण होते हैं। यदि मानवता नहीं है, तो कोई मानव कैसे कहला सकता है? लक्षणों से ही …

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ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति

धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी में परमात्मा के दर्शन करनेवाला और प्रत्येक जीव से प्रेम करनेवाला सच्चा ब्रह्मज्ञानी होता है। एक दिन ब्रह्मनिष्ठ संत उड़िया बाबा गंगा तट पर श्रद्धालुओं को उपदेश दे रहे थे। उन्होंने अचानक दोनों हाथों से गंगाजी की बालुका (रेती) उठाई और पास बैठे भक्त को संबोधित करते हुए कहा, ‘शांतनु, जब तक …

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धन की तृष्णा

सभी धर्मशास्त्रों में धन-संपत्ति तथा अन्य सांसारिक पदार्थों के प्रति तृष्णा को पतन का मूल कारण बताया गया है। महाभारत के वन पर्व में कहा गया है, तृष्णा ही सर्वपापिष्ठा अर्थात् तृष्णा सर्वाधिक पापमयी है। तृष्णा के कारण मानव घोर पाप कर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता। विष्णु पुराण में कहा गया है, ‘जो व्यक्ति धन-संपत्ति को भगवान् की धरोहर …

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दुःख में सुमिरन

कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से दुःख स्वीकार करने को तत्पर नहीं हो सकता। सभी हर क्षण सुखी रहने की कामना करते हैं। महाभारत में जरूर पांडवों की माता कुंती का प्रसंग मिलता है, जो भगवान् से प्रार्थना करती हैं, ‘प्रभु, मेरे जीवन में समय-समय पर दुःख का आभास होते रहना चाहिए। मैंने अनुभव किया है कि सुख में आपकी याद …

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पत्नी स्वर्ग का साधन है

कश्यपस्मृति में कहा गया है, दाराधीना क्रियाः स्वर्गस्य साधनम्। तीर्थयात्रा, दान, श्राद्धादि जितने भी सत्कर्म हैं, वे सभी पत्नी के अधीन हैं। अतः पत्नी स्वर्ग का साधन है। यह भी कहा गया है कि नास्ति भार्यासमं तीर्थम् अर्थात् पत्नी साक्षात् तीर्थ है। स्वामी सत्यमित्रानंदगिरिजी धर्म प्रचार के लिए अमेरिका गए, तो एक अमेरिकी ने उनसे पूछा, ‘क्या भारत में पति …

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जहाँ धर्म, वहीं विजय

महानारायणोपनिषद् में कहा गया है, धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा अर्थात् धर्म ही समस्त संसार की प्रतिष्ठा का मूल है। भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि प्राणों पर संकट भले ही आ जाए, फिर भी धर्म पालन से डिगना नहीं चाहिए। महाभारत युद्ध के दौरान दुर्योधन प्रतिदिन माता गांधारी के पास पहुँचकर विजय की कामना के लिए आशीर्वाद की याचना किया …

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मानव में भगवान्

रामचंद्र डोंगरेजी महाराज परम विरक्त व ब्रह्मनिष्ठ संत थे। उन्होंने अपने जीवन में सौ से अधिक कथाएँ सुनाई, पर दक्षिणा में एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। कथा के चढ़ावे के लिए आने वाला तमाम धन वे असहाय व अभावग्रस्तों के लिए भोजन की व्यवस्था और गरीब कन्याओं के विवाह के लिए भेंट कर देते थे। अन्नदान को वे सर्वोपरि …

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